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________________ ३४४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा शाखाएं छत में घुस पैठी हैं; कालान्तर में यह वृक्ष इस समूचे मन्दिर को ले बैठेगा और इस पर एकमात्र प्राकाश का ही चंदोवा रह जायगा। भक्तों को. वृक्ष के हाथ लगाने का साहस नहीं होता क्योंकि सर्व-संहारक महाकाल के मन्दिर के साथ-साथ इसका भी महत्त्व है-शायद इसीलिए शिव ने अपने अन्य बहुत-से उपकरणों के साथ इसको भी मान्यता प्रदान की है। मैंने कार्यवाहक पुजारी को तर्क के बल पर समझाया कि यदि वह पेड़ को नष्ट नहीं करेगा तो वह कभी न कभी मन्दिर को ध्वस्त कर देगा; ऐसी दशा में, दो आपत्तियों में से हल्की वाली का वरण क्यों न किया जाय ? उसने इस सत्य को स्वीकार तो किया परन्तु अपनी आलंकारिक भाषा में कहा, 'क्या करू, इधर पड़ तो कुमा है और उधर पडूं तो खाई है, विचित्र उलझन है।' इस मन्दिर के समीप ही महादेव का एक बहुविग्रहिक लिंग है, जो कोटेश्वर कहलाता है। यह विशुद्ध लाल पत्थर का महालिंग है जिस पर बहुत-से छोटे-छोटे लिंग भी बने हुए हैं। मैं पापेश्वर [मूर्तिमान पाप' के ऐसे मन्दिर में जाकर खड़ा हुआ, जिसकी इमारत का किञ्चित् भी अवशेष नहीं बचा था । यह पहला ही अवसर था कि जब मैंने विश्व-देवताओं में इस देवता का नाम सुना। कहते हैं कि कन्हैया की प्रियतमा सुन्दरी रुक्मिणी इस मन्दिर की मुख्य पुजारिन ही नहीं थी अपितु इसका निर्माण भी उसी ने कराया था। यदि यह सत्य है तो यह इस बात का दूसरा प्रमाण है कि कृष्ण, हिन्द में देवत्व-पद प्राप्त करने और उनके अनुयायियों का सम्प्रदाय बनने से पूर्व, शिव के ऐसे अशद्ध विग्रहों और बुध (ग्रह) का पूजन किया करते थे, जो एक साथ ही चोरों और बुद्धि का रक्षक माना जाता है । ऐसा लगता है कि मुसलमानों ने 'पाप-देवता' के इस मन्दिर पर मजहबी शरम को अच्छी तरह लाग करने के लिए विशेष प्रयत्न किए थे, क्योंकि उन्होंने एक भी पत्थर को दूसरे पत्थर पर टिका नहीं छोड़ा; परन्तु मेरे यह समझ में नहीं पाया कि उन्होंने मुख्य लिंग को क्यों नहीं छेड़ा? यह सम्पूर्ण कथा बहुत ही अलंकारमयो हैं और वास्तव में यह बड़ा विचित्र रूपक है; यद्यपि, बहुत सी अन्य कथाओं के समान, पहले तो देखने में यह बच्चों की-सी छिछली कहानी लगती है, परन्तु इससे विचार करने को बहुत कुछ सामग्री प्राप्त हो जाती है । यद्यपि यह ठीक है कि पाप की जड़ पाताल में गड़ी है, तो भी इसकी क्या संगति है कि पूजनीय यदु (जिसको ये लोग इन्द्र, सूर्य और • वास्तव में 'पापेश्वर' से तात्पर्य है 'पापों का नाश करने वाला ईश्वर या शिव ।' उस विग्रह को पाप की मूर्ति मानना सही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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