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प्रकरण • कुमारपाल
[ १९३ कुमारपाल के सोलह रानियां, बहत्तर सामन्त और अन्य सेनानायक थे । उसने अणहिलवाड़ा को बारह विभागों में बांट दिया था; प्रत्येक विभाग एक मुख्य न्यायाधीश के अधीन था। लार जाति को उसने अपने राज्य से निकाल दिया था। उसने अपने बहनोई शाकम्भरी के राजा पूर्णपाल से युद्ध करके उसे बन्दी बना लिया और उसके राज्य को आक्रान्त किया । सूरत के स्वामी समरेश (Samar-e's) पर भी आक्रमण करके उसको अपने आधीन कर लिया था।' संवत् १२११ (११५५ ई०) में उसने मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया और विदेशियों से कर वसूल करके पवित्र पर्वत गिरनार पर सीढ़ियां बनवाने का खर्चा पूरा किया। कहते हैं कि उसने सिन्ध के रास्ते से होने वाले कितने ही मुसलमानी हमलों का सामना किया था। 'चरित्र' में कुमारपाल को 'जैनधर्म का स्तम्भ' लिखा है. जिसमें जीवहिंसा वजित होने के कारण वह राजपूत के लिए उपयुक्त धर्म नहीं माना गया है और इसी धर्म के अनुयायी को सर्वाधिकारी मन्त्री बनाना तो और भी असंगत बात थी। ___वर्षा ऋतु में जब वह शाकम्भरी के युद्ध से लौटा तो उसे विचार पाया कि इस युद्ध में असंख्य जीवों का भी वध हुआ है; अतः, सम्भवतः हेमाचार्य की प्रेरणा से, उसने भविष्य में उस ऋतु में कभी युद्ध न करने की शपथ ग्रहण की। कहते हैं कि इस सिद्धान्त का पालन करने के निमित्त उसने कन्नौज के राजा जयसिंह के पास भी एक पत्र भेजा जिसमें उसका स्वयं का चित्र याचना करते हुए अंकित था। उस पत्र में कन्नौज के राज्य में पशु-वध बन्द करने की प्रार्थना की गई थी; साथ में, दस लाख सोने के सिक्के और दो हज़ार चुने हुए घोड़े भी थे
' सम्भवतः यह सरम (Sarama) था, जिसका उपनाम पेरीमल (Perimal) था अर्थात्
वह 'प्रमारवंश' का था जिसका रेनॉडॉट (Renadout) ने उल्लेख किया है कि वह मुसलमान हो गया था और उसने अपने अन्तिम दिन मक्का में बिताए थे। (पृ० १७१ प्रध्याय की अंतिम पंक्ति) इसको केवल मंदिर लिखा है। हम अनुमान करें कि यह सोमनाथ पत्तन का सूर्यनारायण का मन्दिर होगा । अथवा यह शत्रुञ्जय का मन्दिर होगा। संवत् १२११ में कुमारपाल ने बाहड़पुर में त्रिभुवनटाल-विहार पर कलश चढ़ाया।
-कुमारपालप्रबन्ध; जिनमण्डन ; पृ० ७४ (A) ३ सन १८२० ई. में जब मैं मारवाड़ में था तो वहां के प्रसन्तुष्ट सैनिकों ने शिकायत की
कि वे तो भूखों मर रहे थे और वहां के जैन मन्त्री कुत्तों को खिलाने में सैकड़ों रुपये खर्च कर रहे थे। ऐसे ही पक्षपातपूर्ण व्यवहार से प्रणहिलपाड़ा का पतन हुना होगा। यह एक अजीब सी बात है, परन्तु इसका ठीक-ठीक कारण ज्ञात नहीं है कि सभी वणिक जातियां विशेषतः प्रोसवाल जाति प्रणहिलवाड़ा के सोलंकी राजपूतों से निकली है और प्राश्चर्य इस बात का है कि प्रायः जैन गुरुनों का चुनाव इन्हीं घोसवालों में से होता है।
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