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________________ ४३२] पश्चिमी भारत की यात्रा देवालय में विद्यमान है और कृष्ण की मूर्ति इससे बाहर के कक्ष में स्थापित है। अत्यन्त प्राचीन शैली में निर्मित इस शिखर में एक के बाद एक पिरामिड बने हुए हैं, जिनमें से प्रत्येक ही एक लघु मन्दिर का प्रतीक है और सबसे ऊपर के शिखर की ओर सिकुड़ता चला गया है, जो जमीन से एक सौ चालीस फीट की ऊँचाई पर जाकर समाप्त होता है । जहाँ इस पिरामिड की आकृति वाले शिखर का व्यास बहुत छोटा हो जाता है उससे पहले इसको सात मंजिलें स्पष्ट हैं; प्रत्येक मंजिल का मुख भाग एक खुले ओसारे से सजा हुया है जिस पर छोटेछोटे खम्भों पर टिके हुए छज्जे भी बने हुए हैं। प्रत्येक मंजिल में भीतर की पोर खम्भों पर खम्भे टिके हए हैं और इन पर टिके हए मध्य-पट्ट उन पर धरे हुए भार की घटती हुई मात्रा की अपेक्षा अनुपाततः अधिक भारी होते चले गए हैं; यद्यपि सब से ऊपर की मंजिल में बहुत से मध्यपट्ट अपने ही भार से तड़क गए हैं, परन्तु वे समष्टिगत एकता के कारण अपने स्थान पर कायम हैं। इन खम्भों के शीर्ष-दल बिलकुल सादा हैं और चारों तरफ कुछ-कुछ आगे निकले हुए हैं कि उन पर मध्य-पट्ट आसानी से टिक सकें; शिल्पी की नासमझी या मन्दता के कारण, जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता, कुछ मध्य-पट्ट तो खम्भे के सिर पर न रखे जा कर वास्तव में शीर्ष-दल के इस आगे निकले हुए भाग पर हो टिके हुए हैं । यह जान कर आश्चर्य होगा कि सदियाँ बीत जाने पर भी उनकी क्षमता के प्रमाण में कोई अन्तर नहीं पाया है। अवश्य ही, विट विप्रस (Vitruvius)' इस आविष्कार से चकित हुए बिना न रहता। इस इमारत की पूरी बनावट, जिसकी भीतर से लम्बाई-चौड़ाई अठहत्तर फीट और छियासठ फीट है, चट्टानी पत्थर या बलुआ पत्थर की है, जिसमें इस द्वीप की किस्मजमीन की मिट्टी विभिन्न मात्रात्रों में मिली हुई है, जिसका रंग हरा-सा हैस्थानीय मिट्टी के पेटे (बन्ध) के कारण हो अथवा क्षारीय वायु-मंडल के कारण, परन्तु जब इस पर तेज रोशनी पड़ती है तो वह समस्त भवन-समूह को एक प्रकार की दर्पण के समान प्राभा से प्रत्यासित करती है। भीतर से इसकी विचित्र प्राकृति नाक जैसी है । शीर्ष-पट्ट यद्यपि अपवाद हैं, परन्तु समुद्री क्षारीय पिण्ड से निर्मित होने के कारण वे उन चूने के पिण्डों से भिन्न नहीं लगते जिनका वर्णन सोमनाथ के मन्दिर के प्रसङ्ग में किया गया है। • सुप्रसिद्ध रोमन शिल्पशास्त्री और De Architectura नामक बृहत् शिल्पशास्त्रग्रन्थ का कर्ता। इसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में विशेष विवरण ज्ञात नहीं है; केवल इतना ही कहा जाता है कि उसका लेखन-काल रोम-निर्माण (ई. पू. २७) से पूर्व का है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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