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________________ विज्ञापन यद्यपि ग्रन्थकर्ता ने इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि प्रायः सम्पूर्ण ही छोड़ी थी फिर भी इसके प्रकाशन में अत्यधिक अपरिहार्य विलम्ब हो गया है। परिशिष्ट में से कुछ ऐसा अनावश्यक भाग छोड़ दिया गया है जिसको देना सम्भव नहीं था। इस पुस्तक को उस लाभ से तो वञ्चित रहना ही पड़ा जो इसके प्रणेता द्वारा अन्तिम प्रावृत्ति से प्राप्त होता फिर भी यह प्रायः उसी सम्पूर्ण अवस्था में है जिसमें वह इसे संसार के सामने उपस्थित करता। विभिन्न प्रकरणों के कितने ही पत्रों में ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जिनको वह इस पुस्तक के प्राक्कथन में प्रयुक्त करना चाहता था; परन्तु, यदि और कोई व्यक्ति ऐसी सामग्री का उपयोग करे तो यह धृष्टता ही होगी।' विलम्ब होने से पुस्तक के विषय के प्रति एक अतिरिक्त आकर्षण तो उत्पन्न हो गया है क्योंकि पश्चिमी भारत की पुरावस्तुओं पर आजकल एक प्रकाशपुञ्ज का उत्सृजन हो रहा है-मुख्यतः गिरनार के शिलालेखों का अर्थविश्लेषण बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी द्वारा गतिमान हो रहा है, जिसके विद्वान् मिस्टर प्रिंसेप ने उनमें उल्लिखित 'एण्टिोकस द ग्रीक' १. ग्रन्थकर्ता की भावनाओं और उद्देश्यों का एकमात्र परिचायक निम्न अंश यहाँ प्रस्तुत किया जाता है "जनता के समक्ष दुबारा उपस्थित होने की कठिन परीक्षा के प्रति रीतिरिवाजों ने हमारे मन में एक प्रकार का भय उत्पन्न कर दिया है, परन्तु, मुझे किसी प्रकार के भय का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत, जो प्रोत्साहन मुझे प्राप्त हुआ है उसी से सुरक्षित होकर में इस ( कृति ) को अन्य महान ग्रन्थों का सहचर बनने के लिए भेज रहा हूँ, जिनका सृजन समान उद्देश्यों के लिए और विकास समान परिस्थितियों में हुआ है । यदि कल्पना पर आधारित यह कोई नवीन कृति होती तो मैं किसी प्रकार की आशंका से दबकर श्रम करता; परन्तु इसमें तो, सामग्री-संकलन और उसकी व्यवस्था वही है जिसके लिए में अपनी ईश्वर-प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग [जीवन भर करता रहा है। पूर्वकृति के लिए मैंने जी-जान लड़ा कर परिश्रम किया है और इसके लिए भी सभी प्रकार के आकर्षण को छोड़ कर उसी भक्तिभाव से विषय पर विचारों को केन्द्रित किया है - केवल इस प्राशा से कि राजपूत अपने [महान्] कार्यों से संसार के सामने आ जाए। दृश्य बदल गया है। परन्तु, मैं अब भी राजपूताना के सीमा-छोर पर अटका हूँ और अपने पाठकों को सौराष्ट्र प्रदेश में ले जाना चाहता हूँ, जो किसी भी प्रकार कम आकर्षक नहीं है तथा उन पर्वतों की सैर कराना चाहता हूँ जो एकेश्वरवादी जैनों के लिए उसी प्रकार पवित्र है जैसे गेराजिम (Gerazina) प्रथवा सिनाई (Sinai) इजरायालियों के लिए है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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