________________
२२६ ] . . पश्चिमी भारत को यात्रा
आर्यपुन्ति (Arhya Punti) (पुन्ति अर्थात् पथ) शब्दों से क्या तात्पर्य अथवा सन्दर्भ हो सकता है, इसका अनुमान हम उसी प्रकार लगा सकते हैं जैसे कि इस मत के नाम में और सम्भवतः मान्यता के विषय में समानता का अनुमान लगाया करते हैं कि 'पावं' के समान उसके कुछ अन्तिम जिनेश्वर एरिया (Aria) में ही हुए होंगे। उनके देवत्वप्राप्त धर्माचार्यों में से इस तेवीसवें प्राचार्य का समय ई० पू० ६५० का था जब कि पश्चिमी एशिया से नए प्रांगन्तुकों के झुण्ड के झुण्ड भारत में चले पा रहे थे। उनके नाम से भी प्राचीन 'पार्स' (Pars) और 'पार्थिक' (अग्निपूजक) में साम्य प्रकट होता है और जनों के पवित्र पर्वतों पर उत्कीर्ण शिलालेखों और सिक्कों के अक्षरों एवं चिह्नों में हिन्दू अक्षरों और चिह्नों का कोई सादृश्य नहीं हैं; वे सम्भवत: चाल्दिनन' (Chaldean) अक्षरों और चिह्नों के परिष्कृत रूप हैं, जो या तो व्यवहार द्वारा सीधे यूफाटीस (Euphrates) से प्राप्त किए गए हों अथवा एरिया (Aria) हो कर पाए हों; इस कल्पना का हमारे कुछ सृष्टिसिद्धान्तवादी विरोध करेंगे, जो इन तटों को सेमेटिक यात्रियों का भारत में पाने का मार्ग मानते हैं । सम्भव है, इन पवित्र विजन पर्वतों पर प्राप्त प्राचीन सभ्यता के खण्डहरों और शिलालेखों के आधार पर शोध करने से कुछ और भी रहस्य सामने पाएँ। ___ स्थापत्य के विषय में बौद्ध और जैन मन्दिरों से अब तक प्राप्त हुई सामग्री के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इसके मौलिक तत्त्वों को यदि वे अपने धर्म के साथ पश्चिमी एशिया से नहीं लाए थे तो भी जो कुछ प्रकार उन्होंने यहाँ पर आकर ग्रहण किया उसका परिष्कार ऐसे रूप में हो गया है कि वह अपने आपमें एक स्वतन्त्र शैली बन गया है, जैसा कि अब तक वर्तमान उन स्मारकों में देखा जा सकता है, जिनको नमूने के रूप में विश्व के सामने सर्वप्रथम प्रस्तुत करने की मुझे प्रसन्नता है।
भारत के 'टायर' द्वारा आठवीं शताब्दी में बाहर से मंगाए हुए माल का विवरण देख कर संक्षेप में यही कहा और माना जा सकता है कि बढ़े-चढ़े और वहुत काल से संस्थापित व्यापार के कारण ही ऐसे परिणाम निकल सकते थे।
जब मैं यह कहता हूँ कि चरित्रों, ऐतिहासिक वृत्तान्तों, सिक्कों और शिलालेखों आदि से इतनी सामग्री प्राप्त होती है कि अणहिलवाड़ा और उसके अधीनस्थ राज्यों का एक क्रमबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है तो प्रश्न होता है
• प्रति प्राचीन लिपि जिससे लैटिन अक्षरों का उद्भव हुआ बताया जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org