________________
प्रकरण - १०; बल्हरों को राजधानियां
[ २२७ कि मैंने ही ऐसा प्रयास क्यों नहीं किया ? उत्तर सीधा है, कि अपनी शक्ति पर भरोसा न होने के कारण मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर ऐतिहासिक और कालक्रम-सम्बन्धी तथ्यों की संगति कर देना ही अधिक उपयुक्त समझा और जैसा कि मैंने अपनी पूर्व-कृति' में किया है, इतनी हो सामग्री इतिहास-लेखकों के लिए प्रस्तुत करने में मुझे सन्तोष भी है, तथापि यहाँ पर हम उन टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने का प्रयास कर सकते हैं जो पश्चिमी भारत के बल्हरा राजाओं के इतिहास को ईसाई सन् के समकालीन युगों से संबद्ध करती हैं।
गुर्जरराष्ट्र (भाषा गुजरात) और सौराष्ट्र (गूजरों और सौरों का प्रदेश) के संयुक्त देशों में ही बल्हरों के साम्राज्य का मूल स्थान है और राजनैतिक आवश्यकताओं के अनुसार इन्हीं क्षेत्रों में, कभी यहाँ तो कभी वहाँ, राजधानियों की स्थापना होती रही है । इस विषय में तीन बार राजधानी की स्थिति में एवं इससे दुगुनी बार राज्य-वंशों में परिवर्तन होने का विवरण हम स्पष्टतया प्राप्त कर सकते हैं । मेवाड़ के इतिहास के अनुसार पहले राजवंश का संस्थापक उनका पूर्वज सूर्यवंशी (चावड़ा) कनकसेन' था, जिसकी राजधानी लोकोट (Lokote) उत्तरी प्रदेश में थी। ढांक (Dhank) अथवा मुंगीपट्टन' में उनका निवासस्थान था। वहां से उन्होंने वलभी की स्थापना की जिसके विषय में, सौभाग्य से शिलालेख प्राप्त हो जाने के कारण, यह सिद्ध हो चुका है कि इस नगर के स्थापनाकाल से इसका अपना संवत् प्रचलित हुमा, जो ३१६ ई० से प्रारम्भ हुआ था। पांचवीं शताब्दी में पार्थियनों, जीतों (Getes), हूणों और काठियों अथवा इन सब जातियों के मिश्रित समूहों के प्राक्रमण से जब यह नगर, 'जहाँ जनों के चौरासी मन्दिरों के घण्टे श्रद्धालुओं का आमन्त्रण करते थे,' नष्ट हो गया तब इस शाखा के लोग पूर्व की ओर भाग गए और अन्त में चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। उस समय इस प्रान्त में देव-द्वीप और सोमनाथ-पट्टण, जिसको लारिक (Larica) भी कहते हैं, राजधानी बने हुए थे। पाठवीं शताब्दी के मध्य में, इसके नष्ट होने पर अहिलवाड़ा में राजधानी स्थापित हुई और अभिलेखों के अनुसार यह नगर चौदहवीं शताब्दी तक, जब
' राजस्थान का इतिहास। . इस राजा का पाक्रमणकाल ईसा की दूसरी शताम्बी था। यदि इससे पूर्व होता तो इसे
विल्सन के इतिहास, राजतरंगिणी का कनन (Knaksha)समझा जा सकता था। । जिसको तिलतिलपुर-पट्टन (Tila-tilpoor-puttun) भी कहते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org