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पश्चिमी भारत की यात्रा
जब तक उसने नगरी की स्थिति और खण्डहरों का पता न लगा लिया तब तक वह उसके लिए कोई रुचि का विषय न बन सका । 'भोज चरित्र' में भी इसी नगरी का उल्लेख हुआ है । बीजोली [या ] और मेनाल में भी उसने अन्य ' स्थापत्य सम्बन्धी आश्चर्यों' की खोज की थी, जिनको उसने अपनी पेंसिल और कोरणी के द्वारा चिर स्थायी भी बना दिया है ।
उदयपुर को उपत्यका में वापस पहुंचने से पहले उसको एक दुर्घटना का सामना करना पड़ा जिसमें प्रायः उसकी मृत्यु ही हो गई होती । २४ फर्वरी, १८२२ ई० को वह बेगूं के मेघावत सरदार को उसकी जागीर लौटाने जा रहा था, जिसको इस वंश से छल और बल के द्वारा छीन कर मरहठों ने कोई प्राधी शताब्दी से आगे अपने अधिकार में कर रखी थी । 'कालमेघ की सन्तानें " सभी स्थानों से प्राकर इस शुभ अवसर के सम्मान में अपने उपकर्त्ता का स्वागत करने के लिए एकत्रित हुई थीं। बेगूं का प्राचीन किला एक बड़ी चौड़ी खाई से घिरा हुआ है जिस पर मेहराबदार दरवाजे तक पहुँचने के लिए, एक लकड़ी का पुल बना हुआ है। कर्नल टॉड के महावत ने उसको पहले ही चेतावनी दे दी थी कि दरवाज़े में से हौदे सहित हाथी नहीं निकल सकेगा; परन्तु श्रागे वाला हाथी निकल चुका था इस लिए उसको हाथी बढ़ाने के लिए कहा गया । इसी अवतर पर वह पशु किसी कारण से चमक गया और तेजी से सीधा प्रागे दौड़ा। कर्नल टॉड ने दरवाज़े पर पहुँचते ही देखा कि वह बहुत नीचा था इसलिए उसने मृत्यु को प्रसन्न जान कर अपने पैर मजबूती से हौदे में और हाथों को आगे दरवाजे पर इतने जोर से अड़ा दिए कि हौदे की पीठ टूट गई और वह हाथी पर से नीचे पुल पर गिर कर बेहोश हो गया। उसके खरौंच तो बहुत आए परन्तु कोई घातक चोट नहीं थाई । रावत और उसके सरदार अपनी सहानुभूति के कारण प्रायः उसकी चारपाई के पास बन्दो की भाँति डटे रहे और इतना ही उस दुर्घटना के बदले तसल्ली देने को पर्याप्त था, जो किसी हद तक उसी की समझ की कमी के कारण घटित हुई थी; परन्तु, दो दिन बाद, जब वह दस्तूर अदा करने गया तो उसके प्राश्चर्य की सीमा न रही जब उसने देखा कि कालमेघ का बनवाया हुआ दरवाज़ा ढेर हुआ पड़ा था और उसी पर हो कर उसको एक ऊँचे प्रालिंद पर स्थित महलों में ले जाया गया जिसके सामने ही बेगू की छोटी सी कचहरी थी । जब आवेग के वश हो कर दरवाजा तुड़वा देने के बारे में उसने रावत को प्रत्यादेश किया तो उसने कहा “मुझे यह बिलकुल
• कालभोज के वंशज
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