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________________ २६८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा साथ विचित्र साम्य का एक और भान होता है जिसका चिह्न सर्प है और जिसका एक नाम फनेटीज़ (Phanetes) भी है। इसके बाद हम उस मन्दिर पर पहुंचते हैं, जो बंगाल के सुप्रसिद्ध सेठ का बनवाया हुआ है। इतिहास में वह जगतसेठ के नाम से विदित है। मरहठों के आक्रमण के समय धन (शब्द) उसके नाम का पर्याय माना जाता था और दो करोड़ रुपयों को हानि (यदि श्रम और वस्तुओं का भी हिसाब लगावें तो ८ करोड़ के बराबर) का तो उस पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा था। यह तथ्य त इतना आधुनिक है कि इस पर अविश्वास नहीं किया जा सकता। इससे लगा हुअा ही दूसरा मन्दिर 'सहस्र स्तम्भ' या हजार खम्भों वाला मन्दिर कहलाता है, यद्यपि इसमें कुल मिला कर चौसठ ही खम्भे हैं। पास ही में कुमारपाल का मन्दिर है, जिसमें बावन प्रतिमाएं हैं। इसके और पांचवीं पोल के बीच में दो कुण्ड हैं जो सूर्यकुण्ड और ईश्वरकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हैं । प्रथम कुण्ड पर एक शिवालय है और उसके नजदीक ही अधिक दयामयी अन्नपूर्णा देवी का मन्दिर है। अब एक लम्बी सोपान-सररिण को पार कर के पण्डरी पोल नामक द्वार से हम 'पावनांनां पावन' श्री आदिनाथ के मन्दिर के सामने पहुंचे। चौक में जाने के लिए जिस पण्ढरी के नाम पर बने द्वार से जाना पड़ता है वह तीर्थङ्कर का प्रिय शिष्य था और द्वार के ऊपर बने हुए कक्ष में उसका निवास था । प्राचीनता और पवित्रता की सभी सामग्री इस चौक में उपलब्ध है, परन्तु साम्प्रदायिक वैमनस्य, मूलनिर्माता कहलाने की आकांक्षा और अन्यधर्मावलम्बियों की मतान्धता ने मिल कर इस पवित्र पर्वत पर धार्मिक श्रद्धा से प्रेरित होकर बनवाये हुए सभी सुन्दर कार्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है । ऐसी कुप्रसिद्धि है कि समधर्मानुयायियों के मत-वैमनस्य ने अन्यर्मियों की घणा की अपेक्षा अधिक हानि पहुँचायी है, और यहां पर 'अहिंसा परमो धर्मः' के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले विद्वान् जैनों के मुख से यह तथ्य ज्ञात हुआ कि 'उनके तपागच्छ और खरतरगच्छ नामक मुख्य भेदों के आपसी कलह के कारण ही पुराभिलेखों का नाश अधिक हुआ है और मुसलमानों द्वारा कम, क्योंकि जब तपागच्छ वाले प्रभाव में आए तो उन्होंने खरतर वालों के उत्कीर्ण लेखों को निकलवा कर तोड़-फोड़ डाला और अपने लेख लगवा दिए-फिर, जब सिद्धराज सोलंकी के समय में खरतरगच्छ को शक्ति प्राप्त हुई तो उन्होंने तपागच्छ वालों के लेखों के टुकड़े-टुकड़े करवा दिए।' इन दोनों प्रमुख मतों में पृथक्त्व चतुर्थ सोलंकी राजा दुर्लभसेन के समय में उत्पन्न हुआ था, जो ११०१ ई० में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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