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________________ प्रकरण - १४; प्राविनाथ का मन्दिर [ २६६ गद्दी पर बैठा था। इनमें ऐसी कटुता आ गई थी कि आपस में अनेक गहरी लड़ाइयां हुईं और अपने मूल सिद्धान्त एवं पर्वत की पवित्रता को भुला कर उन्होंने इसे अपने रक्त से अपवित्र किया । अहिलवाड़ा के अजयपाल ने अपने पूर्ववर्ती राजा कुमारपाल के बनवाये हुये सभी मन्दिरों को तुड़वा दिया । कुछ लोग इस कृत्य के मूल में उसके प्रधान मन्त्री को कट्टरता को कारण मानते हैं और दूसरे लोगों का ऐतिहासिक संगति के आधार पर कहना है कि वह ऐसे सिद्धान्तों में विश्वास करने लगा था जो हिन्दू धर्म से सर्वथा विपरीत थे। हमें इस बात के प्रमाण तो नहीं मिलते कि महमद गजनवी इन पवित्र जैन पर्वतों को भी देखने पाया था परन्तु यह निश्चित है कि 'खनी अल्ला' के क्रोध के कारण सभी धर्मावलम्बियों ने अपने-अपने देवताओं को भूगर्भ (गहों) में छुपा दिया था क्योंकि जिनको नहीं छुपाया गया उनको उन्होंने (मुसलमानों ने) नष्ट कर दिया था। यद्यपि बहुत से (देवताओं की प्रतिमाएं) अब बाहर आ गई हैं परन्तु अपेक्षाकृत बहुत थोड़ी ही प्राचीन मूर्तियां बच पाई हैं । इसी प्रकार मन्दिर भी नष्ट हुए, केवल वे ही बच पाये जो मसजिदों में परिवर्तित कर दिये गये थे। परिणाम यह है कि आदिनाथ के चौक में दृष्टि घुमाने पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वहां प्राचीनता का अंश ही नहीं है परन्तु पूरी इमारत को यह श्रेय नहीं दिया जा सकता क्योंकि इसका बहुत-सा भाग नष्टभ्रष्ट और बचे-खुचे हुये हिस्सों पर खड़ा किया गया है, यहां तक कि स्वयं कुमारपाल के मन्दिर में भी निरन्तर टूट-फूट और मरम्मत के कारण हाल ही में धनिक श्रेष्ठी द्वारा पुनर्निर्माण से पहले की प्राचीनता के कोई निशान नहीं मिलते। यद्यपि आदिनाथ का मन्दिर एक आकर्षक इमारत है परन्तु इसमें पाबू के मन्दिरों का-सा स्थापत्य-सौष्ठव बिलकुल नहीं है-न बनावट की दृष्टि से न सामग्री की दृष्टि से । निज-मन्दिर एक चौकोर कक्ष के रूप में बना हुआ है जिस पर गोल छत है, इसी प्रकार सभामण्डप अथवा बाहरी बरामदा भी ऐसी ही छत से ढका हुआ है। देवप्रतिमा बहुत विशाल और सफेद संगमर्मर की बनी हुई है। ऋषभदेव सुपरिचित विचार मुद्रा में पद्मासन लगाए बैठे हैं, उनका चिह्न वषभ, जिसके कारण उनका प्रसिद्ध नाम वृषभदेव (प्राकृत-ऋषभदेव) प्रडा है, नीचे पोठिका पर उत्कीर्ण है । मुखाकृति में वही गम्भीरता है जो प्रायः जैन तीर्थङ्करों की सभी प्रतिमाओं में पाई जाती है परन्तु तराशे हुए हीरे के नेत्र भावगाम्भीर्य लाने में उसी प्रकार सहायक नहीं हैं जिस प्रकार किसी प्राधुनिक भक्त द्वारा उत्साह से प्रेरित होकर प्रतिमा की सजावट के लिए बनवाये हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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