________________
.. ग्रन्थकर्ता-विषयक संस्मरण
[ ४१ और आंशिक रूप में उसे परी भी को-निस्सन्देह, इस महान कार्य के लिए किसी अन्य व्यक्ति में इतनी योग्यता भी नहीं थी; रासो के पांचवें 'समय' का जो प्रादर्श रूप में अनुवाद करके उसने छपवा कर स्वकीय मण्डल में प्रचा. रित किया था वह उसकी बहुमुखी ऐतिहासिक-ज्ञानयुक्त प्रभूत टिप्परिणयों से दीप्त है और उसमें मूललेखक की किसी भी अभिव्यक्ति को अस्पष्ट अथवा दुर्गम्य या दुर्बोध रूप में नहीं छोड़ा गया है-परम खेद का विषय है कि वह अपनी इस योजना को पूरी करने के लिए जीवित नहीं रहा ।
उसके अन्तिम प्रयास को कृति पाठकों के सामने है; १८३४ ई० की शोत ऋतु का मुख्य भाग उसने रोम नगर में इसी कार्य के लिए बिताया था; सम्भवतः इसी महान् परिश्रम को, जिसका फल उसे रोग से परम अशक्त हो जाने तक भी नहीं मिल पाया, उसकी असामयिक मृत्यु का कारण समझा जा सकता है। वह अपनी छाती में पीड़ा के रोग पर विजय प्राप्त करने की प्राशा में १८३४ और १५३५ ई० के कुछ महीनों तक इटली में रहा और अन्त में ३ सितम्बर को इंगलैण्ड लौट आया। जब वह अपनी माता से मिलने हैम्स्फायर (Hampsphire) गया तब उसने इस ग्रन्थ के अन्तिम प्रकरण लिखे और इस प्रकार यह पूरा हो गया; केवल कुछ टिप्पणियाँ और परिशिष्ट ही बाकी रह गया था। उसने रीजेण्ट-पार्क' में अपने नगर-निवास के लिए एक मकान खरीद लिया था इसलिए वहां पर राजधानी में स्थायी रूप से रहने तथा अपनी इस कृति को प्रेस में देने के लिए पूर्ण उत्साह लेकर वह १४ नवम्बर को लन्दन चला आया। उसके चेहरे पर सुधार और उत्साह में वृद्धि देख कर यह दृढ़ पाशा बँध गई थी कि उसे पूर्ण स्वास्थ्य पुनः प्राप्त हो गया है। सोमवार, १६ नवम्बर, १८३५ ई० को उसके, नौ वर्ष पहले हुए, विवाह की सालगिरह थो-उसी दिन अपने व्यौहरिया मैसर्स रोबर्ट स् एण्ड कम्पनी, लोम्बार्ड स्ट्रीट (Messrs Roberts.
वंशज थे जिनका चित्रण उसने किया है। अतः मैं उन कठिनस्थलों का अर्थ भी तुरन्त समझ लेता था जहाँ अच्छे-अच्छे काव्य-पारखी भी असफल हो जाते थे।' जिस भाषा में यह काव्य रचा गया है उसके विषय में (एक हस्तलिखित टिप्पणी में) उसने कहा है 'प्रांतीय बोलियों में जो भिन्नता पाई जाती है उसको हम उस भिन्नता के समानान्तर मान सकते हैं जो Langnedoc और Provence नामक प्रान्तीय बोलियों और इनकी जननी रोमन में हैं और यही बात 'भाखानों अर्थात् मेवाड़ और ब्रज की बोलियों और संस्कृत पर लागू होती है।' क. टॉड द्वारा 'संयोगिता समय' नामक कथा का काव्यात्मक पद्यानुवाद एशियाटिक जर्नल सोसाइटी के, भा॰ २५ में प्रकाशित हो चुका है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org