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________________ पश्चिमी भारत की यात्रा इस प्रादर्श वाक्य के प्रति निष्ठा-भावना के वश होकर मैंने इस कार्य को स्वीकार कर लिया; मुझसे 'ना' कहते न बना। ___जब कार्य प्रारंभ किया तो बाद में कई बार मेरा मन डांवाडोल होने लगा और कभी-कभी तो इस आशंका के अंधेरे बादलों ने मुझे आ घेरा कि शायद यह कार्य मुझ से पूरा न हो सकेगा और मैं श्री मुनिजी महाराज को क्या उत्तर दूंगा ? परन्तु, मुझ से अपने इस ऊहापोह का प्रकाश करते भी न बना, और जब-जब जैसे-जैसे भी मुझे अवकाशों के दिनों में और कार्यदिनों की रात्रियों में समय मिला, मैं किसी न किसी अंश में इस कार्य को करता ही रहा। कभीकभी तो केवल एक ही वाक्य का अनुवाद कर के रह गया, कभी-कभी दो-दो और तीन-तीन महीने का व्यवधान बीच में पड़ गया और सन् १९५८-५९ में तो हमारे कार्यालय के जयपुर से जोधपुर स्थानान्तरण के कारण पूरे वर्ष भर में इस कार्य से पराङ्मुख रहा। अस्तु, अन्ततोगत्वा १९६२ ई० के प्रारम्भ में परिशिष्ट के अतिरिक्त पुस्तक का अनुवाद किसी तरह पूरा हो गया और मैंने श्री मुनिजी महाराज को इस विषय में निवेदन कर दिया। उन्होंने अनुवाद अपने पास मंगवा कर कितने ही प्रकरणों को आद्योपान्त और कितने ही प्रकरणों के यत्र-तत्रीय स्थलों को मुझ से पढ़वा कर सुना, आवश्यक संशोधन करवाये और जहाँ जो कुछ बदलने जैसा था उसका निर्देश किया। जब यह कार्य पूर्ण होगया तो अगस्त सन् १९६२ में श्रीमुनिजी ने कहा कि "अब तो यह पुस्तक राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान से ही प्रकाशित होने लायक बन गई है। इसके परिशिष्ट में जिन शिलालेखों का जेम्स टॉड ने अनुवाद दिया है उनके मूल पाठ को ढूंढो और मूल एवं अनुवाद में जो अन्तर या व्युत्क्रम देखने में आवे उनका उल्लेख करो। अनुवाद की पाण्डुलिपि कार्यालय में जमा करा दो कि जिससे इसके मुद्रण आदि की व्यवस्था चालू की जा सके।" मैंने इस आज्ञा को मान्य करते हुए अनुवाद की पाण्डुलिपि कार्यालय में जमा करवा दो। वहाँ इसके मुद्रणादि के विषय में अपेक्षित कार्यवाही चालू हुई और जनवरी सन् १९६३ में हुई विभाग की विशेषज्ञ समिति ने भी इस पुस्तक के प्रकाशन को स्वीकार कर लिया। कर्नल जेम्स टॉड जैसे बहज्ञ, सूक्ष्मदर्शी और कल्पनाशील लेखक की कृति का अनुवाद करने के लिये जो योग्यता और अध्ययन अपेक्षित है, मैं उसके प्रान्त को भी नहीं छू पा रहा हूँ। इस अनुवाद में मेरा प्रयत्न केवल इतना ही रहा है कि मैंने मूल को पढ़कर अपनी भाषा में जैसा कुछ समझ सका हूँ वैसा लिख दिया है । हो सकता है कि कहीं-कहीं में तत्त्व को न समझ पाया हूँ परन्तु, जैसा जो कुछ समझा है उसको व्यक्त करने में पूरी ईमानदारी बरती है। अत: इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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