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पश्चिमी भारत की यात्रा
प्रकार घूमता रहा परन्तु संवत् ११८९ (११३३ ई.)' में सिद्धराज के अन्त समय तक किसी महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन नहीं पाता। कहते हैं कि सिद्धराज ने कृष्णदेव और कामदेव (Kamideo)' नामक मन्त्रियों को बुला कर अपने कण्ठ के हाथ लगा कर यह शपथ दिलाना चाहा कि वे कुमारपाल को कभी राजा न होने देंगे, परन्तु वे उसकी इस प्राज्ञा का पालन कर पाते इसके पूर्व ही वह मर गया। स्वर्गीय राजा का एक सम्बन्धी, जो कि सोलंकी शाखा का ही था, गद्दी पर बिठाया गया, परन्तु मूर्ख सिद्ध होने के कारण तुरन्त उतार दिया गया। कुमारपाल उस समय तिब्बत' के पहाड़ों में था। समाचार मिलते ही वह पाटण चला पाया; वहाँ पर उसने सभी वर्गों के लोगों को दिवंगत राजा की पादुकाओं और चरण-चिन्हों को पूजते पाया। इतने सम्मान के साथ वे उसका स्मरण करते थे ! बड़े-बड़े दरबारी जब गद्दी के उत्तराधिकारी का निर्णय करने में सफल न हुए तो उन्होंने वही उपाय ग्रहण किया जिसके द्वारा डेरियस (Darius) को फारस का राज्य प्राप्त हुआ था; परन्तु, राजपूत सरदारों ने अणहिलवाड़ा के अधीनस्थ अट्ठारह राज्यों के लिए उपयुक्त शासक ढंढने में हाथी से काम लिया, जो घोड़े की अपेक्षा अधिक शाही और बुद्धिमान् होता है। उस हाथी की सूंड में एक पानी का घड़ा पकड़ा दिया गया और सब ने यह स्वीकार किया कि वह गणेश का प्रतीक जिस पर उस पानी को उँडेल देगा
. यहां संवत् ११६९ (११४३ ई.) होना चाहिए । २ इसका शुद्ध नाम कान्हड़देव है। ३ इसमें सन्देह नहीं कि उत्तर के पहाड़ों में कुमारपाल को किसी धर्म-श्रद्धालु जाति के लोगों
ने ही शरण दी थी। तिब्बत के विहारों (धार्मिक-स्थानों) में प्रयुक्त लिपि में और मध्य एवं पश्चिमी भारत के शिलालेखों को लिपि में बहुत थोड़ा ही अन्तर है। तिस्बत के बौद्ध कभी-कभी सौराष्ट्र के पर्वतों की यात्रा करने पाया करते हैं, परन्तु यह स्पष्टतया नहीं
कहा जा सकता कि यह धर्म वहीं से उत्तर में गया था। ४ बहुत सम्भव है कि इस दृश्य के महान अभिनेता को बहुत पहले से ही अभ्यस्त किया गया होगा और इस योजना की पूर्व-व्यवस्था कुमारपाल के बहनोई ने को होगी। इस बुद्धिमान् पशु को कुछ गन्नों के लोभ से गलियों में घुमा कर उसके द्वारा राजा के किसी प्रतिरूप का अभिषेक करवाने की शिक्षा देना बहुत सरल है। 'कुमारपाल रास' में यहाँ हथिनी से अभिषेक कराना लिखा है। डेरिस (Darius) को फरस का राजा बनाने में भी ऐसी ही तरकीब काम में लाई गई थी। कहते हैं कि एक घोड़ी उसके डेरे के किनारे बांध दो गई थी और वह शुभ प्रश्व छोड़ते ही उससे मिलने के लिए, वहाँ वोड़ पाता था। मेरे एक मित्र एडवर्ड ब्लण्ट ने भी प्रागरे में हमारे खच्चरों की दौड़ के अवसर पर
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