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१३. ]
पश्चिमी भारत की यात्रा नोचो पर्वत-श्रेगो को पार करना पड़ता है जो प्राबू की तलहटो से हो दक्षिण की ओर शुरू हो जाती है; रास्ता एक घने जंगल में होकर जाता है जिसमें से मेरा सामान भी पार न हो सका । मुख्य नगर में भी अब जंगल ही जंगल उग पाया है, कुएँ और बावड़ियाँ पुर गई हैं, मन्दिर ध्वस्त हो गए हैं और बचीखुची सामग्री को गिरवर का सरदार नित्य बरबाद किए जा रहा है। जिसके पास रुचि और पैसा है उसी को वह यह सामान बेच देता है। एक तरफ अम्बाभवानी और तरंगी या तारिंगा के मन्दिर और दूसरी ओर आब, इन दोनों के बीचों-बीच चन्द्रावती है । अम्बा भवानी और तारिंगा के मन्दिर यहां से पूर्व में पन्द्रह मील की दूरी पर हैं तो पाबू भी पश्चिम में इतने ही अन्तर पर है। आबू के समान ये मन्दिर भी उतने ही आकर्षक हैं और जैनों तथा शैवों दोनों ही के तीर्थस्थान है । यदि हम अनुश्रुति पर विश्वास करें तो ज्ञात होता है कि यह नगरी धार से भी पुरानी थी और पश्चिमी भारत की उस समय राजधानी थी जब कि परमार यहाँ के स्वामी थे और नौ-कोटि मारवाड़ के नवों किले भी उन्हीं के अधीन बड़े करद राज्यों में थे। इनका विवरण एक पद्य में अन्यत्र दिया जा चुका है जिसमें बताया गया है कि इस जाति का अधिकार सतलज से नर्मदा तक फैला हुआ था और धार भी उन्हीं के अधीनस्थ एक राज्य था। यद्यपि, जैसा कि ऊपर कहा गया है, नगरी शब्द से चन्द्रावती का दृढ़-प्राकार-युक्त होना पाया जाता है परन्तु, फिर भी आपत्ति काल में आबू का किला ही इसका शरण्य दुर्ग रहा होगा और व्यापारिक मण्डी के दृष्टिकोण से आज इसकी स्थिति कितनी ही दुर्गम्य प्रतीत क्यों न हो परन्तु यह याद रखना चाहिये कि पूर्वीय देशों में धार्मिक और व्यापारिक यात्रा दोनों जोड़ली बहिनें रही हैं। प्रत्येक यात्रा का स्थान व्यापार का केन्द्र भी रहा है। अतः भारत में दोनों प्राय-द्वीपों से समुद्रतटीय व्यापारिक याता
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' 'इतिहास' भा० १; पृ० ७६० राजा धरणीवराह ने अपने भाइयों को नव कोट दिए जिसका एक पद्य इस प्रकार है :
"मंडोवर सावंत हुवो अजमेर अजैसू । गढ पूंगल गजवंत हुवो मुद्रवे भाणभू ॥ भोजराज धर धाट हुवो हांसू पारक्कर । अल्ल पल्ल अरबुद्द भोजराजा जालंधर ।। नव कोड़ किराडू संजुगत, थिर पंवार हर थप्पिया ।
धरणीवराह धर भाइयां, कोट वांट जू जू कियो।" दयालदास कृत पंवार-वंश-दर्पण, पृ० ४-दशरथ शर्मा, सादुल राजस्थानी रिसर्च इंस्टी
ट्यूट, बीकानेर ।
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