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प्रकरण - १७; भैरव-झाप
[३८७ भावना को व्यक्त करते हैं । यहाँ हमने 'स्वर्ण प्रवाहिनी' नदी का अन्तिम दृश्य देखा, जो बाद में हमारे पद-पद पर घनी होती चली गईं घने जंगल की गहराइयों में खो गया और कि हम गिरिराज की तलहटी के समीप पाते गये जहाँ से दक्षिण-पूर्व में ही उसका मुख्य उद्गम-स्थान है । अब मार्ग सँकड़ा हो गया था-इतना तंग कि उस पर अकेला एक ही यात्री चल सकता है और ऊपर झूलती हुई वृक्षों की घनी पत्रावली से मुंह को बचाने के लिए बार-बार उसे अलग हटाना पड़ता है। इस उलझे हुए मार्ग से थोड़ी दूर चलने पर ही यात्री एक अत्यन्त प्राचीन महा-मुनि की पादुका की ओर आकृष्ट होता है जिसे साष्टाङ्ग दण्डवत् करने की भावना उसमें सहज ही उत्पन्न हो जाती है, और पास ही में बहुत पुराने अपरिष्कृत रूप में निर्मित पांच मन्दिर हैं, जिनकी छतरियाँ ग्यानिट के खम्भों पर आधारित हैं। ये पाण्डव-बन्धुओं के मन्दिर बताए जाते हैं और इनके समीप ही और भी अधिक दुर्दशा-ग्रस्त अन्य दो मन्दिर हैं, जो उनके सम्बन्धी और सखा कन्हैया तथा पांचों हिन्दू-सीथिक राजाओं की एक पत्नी द्रौपदी के नाम पर हैं । इसी, घाटी के संकड़े मार्ग के, स्थान से साढ़े तीन मील की ऋमिक चढ़ाई है; 'पादुका' से यह चढ़ाई निश्चित दिशा ले लेती है और इस मार्ग में यात्री को गोल तथा स्तम्भाकार बड़े-बड़े पत्थर के टोले मिलते हैं जो किसी हलचल (भूकम्प) के कारण पहाड़ की चोटी से विलग हुए प्रतीत होते हैं । ये इस तरह लटके हुए हैं कि पुनः लुढ़क जाने के लिए तैयार ही हैं। मार्ग का यह बड़ा और एकान्त भाग 'भैरों झाँप' कहलाता है, जो लगभग सौ फीट ऊंचा और इससे दुगुनी परिधि के फैलाव में है। इसकी चोटी पर से, इस क्षणभङ्ग र संसार से तंग आए हुए लोग, पुनर्जन्म के लिए झाप (छलांग) मारते हैं और इसी लिए इसका यह नाम-झाँप अर्थात् कूदना और भैरू (भैरव) अर्थात् विनाश का देवता, पड़ा है । प्रायः महत्त्वाकांक्षा ही इस आत्मघात का प्रेरक उद्देश्य हो सकता है अर्थात् मरने वाले को इससे अपनी वर्तमान दशा में सुधार न होने की निराशा और 'नये जन्म में राजा बनने की' प्राशा रहती है। अतएव ऐसे लोगों में उच्च श्रेणी के व्यक्ति नहीं होते वरन प्रायः ऐसे होते हैं जिनको अपने साधारण पुरुषार्थ से इस जीवन में ऊँचे बढ़ने की आशा नहीं रहती । मेरे मित्र मिस्टर विलियम्स् सन् १८१२ ई० में यहीं पर थे जब कोई बारह हजार यात्रियों के संघ में से केवल एक आदमी ने 'भैरों-झांप' ली थी- और वह बेचारा एक परम दरिद्री प्राणी था। इनमें से दूसरे घातक प्रस्तर-समूह का नाम 'हाथी' है; यह पहाड़ के आधे रास्ते चल कर एक चट्टान के ठीक मुख भाग पर पन्द्रह सौ फीट की सीधी ऊँचाई पर है। इसकी प्राकृति
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