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पश्चिमी भारत की यात्रा
( माण्डलिक) का दो बार उल्लेख है और मूल में लिखा है कि प्रथम ( माण्ड - लिक ) ' बहुत प्राचीन काल में हुआ था । ऐसे शिलालेखों में प्रायः देखा गया है कि किसी अत्यन्त प्राचीन सूत्र का उल्लेख किया जाता है, फिर बीस पीढ़ियाँ छोड़ कर जिसका संस्मरण लिखना होता है उसके अतिनिकट पूर्वजों का विवरण देने लगते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिलालेख जयसिंह द्वारा अपने स्वजातीय प्रमुख योद्धा अभयसिंह के प्रति आभार प्रदर्शन का प्रमाण उपस्थित करता है, जो भिंगरकोट की 'जवनों' से रक्षा करता हुआ बलिदान हो गया था – 'जवन' शब्द का प्रयोग प्राचीन ग्रीस निवासियों और 'बर्बर' मुसलमानों के लिए समान रूप से किया जाता है । भिंगरकोट या जूनागढ़ के लिए इस नाम के प्रयुक्त होने के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है, यद्यपि तलहटी में स्थित होने के कारण इसका विवरण बहुत ठीक उतरता है । इस लेख से गढ़ाक्षरों में समय-सूचन प्रणाली का भी अच्छा उदाहरण प्राप्त होता है जिसमें, मिश्र देशवासी गुढ़ाक्षर-लेखक पुरोहितों के समान, ब्राह्मणों को जनसाधारण की समझ से प्रत्येक बात को गुप्त रखने में आनन्द प्राता था । परन्तु, मैंने इसकी कुंजी अन्यत्र दे दी है इसलिए यहाँ संक्षेप में इतना ही लिखूंगा कि इस (संवत् ) का उद्धार किस प्रकार किया गया है । संवत् को इस प्रकार संकेताक्षरों में लिखा गया है—'राम, तुरङ्ग, सागर, मही'; इनको उलटा कर पढ़ना चाहिए अर्थात् दाएं से बाएं, तब हमको १४७३ का संवत् मिल जाता है । अर्थ इस प्रकार है— राम तीन हैं, तुरंग अर्थात् सप्ताश्व - सूर्य का सात शिरों वाला अश्व, सागर से तात्पर्यं चारों समुद्रों से है, जो पृथ्वी को घेरे हुए हैं और मही अर्थात् पृथ्वी एक है ।
आधा मील आगे चल कर जहाँ नदी को फिर पार करना पड़ता है, इमली और पीपल के वृक्षों से आच्छादित प्रत्यन्त रमणीय घाटी में भावनाथ महादेव का मन्दिर और सरोवर हैं । यहाँ पुन: स्नान किया जाता है और जब यात्री इस शीतल एवं आनन्दप्रद स्थान में विश्राम के अनन्तर शारीरिक और मानसिक पवित्रता लाभ कर के दर्शन करने जाता है तो पुजारी उसके 'भभूत' [विभूति] का टीका लगाता है । आधा मील और आगे चल कर हम दो मुसलमान सन्तों की मजार पर पहुँचे, जिन पर एक प्रकार की बेदी सी बनी हुई है जो कपड़े से ढकी हुई थी और लगभग एक दर्जन लाल कलंगी वाले मुर्गे उसके ऊपर और आस-पास पूर्ण स्वतंत्रता से गर्वभरी चाल से घूम रहे थे । हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही ऐसे स्मारकों के आगे मस्तक झुकाते हैं - यह उन अनेक उदाहरणों में से एक है, जो किसी भी पवित्र वस्तु के प्रति हिन्दुओं की स्वाभाविक आदर
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