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पश्चिमी भारत की यात्रा साठ से अस्सी फोट तक के पिरामिड की सी है और इसके एवं पर्वत के बीच में यात्रियों के चलने के लिए रास्ता काफी है। इस स्थान तक तो यह पहाड़ जंगल से ढंका हुआ है, परन्तु यहाँ प्राकर वनस्पति का लोप होगया है और कोरी काली पथरीली चट्टानों के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता, जिनमें हो कर खंगार के महलों तक पहुँचने के लिए बड़ी सावधानी से चलना पड़ता है। धनवानों के दयाभाव ने इन खड़ी चट्टानों में हो कर मार्ग को अपेक्षाकृत सुगम
और सुरक्षित बना दिया है। चट्टानों को काट-काट कर नीची-नीची और सैकड़ीसैकड़ी सीढ़ियाँ बना दी गई हैं और स्थान की दुरूह आकृति के अनुसार अनगिनती चक्करों और मोड़ों में हो कर यह रास्ता निर्मित हुआ है-कहीं-कहीं तो चट्टान के बिलकुल किनारे पर ही कोई सीढ़ी आ गई है। पिछली शाम, मैं अचानक ही लंगड़ेपन का शिकार हो गया इसलिए मुझे पहाड़ी-डोली में चढ़ने को विवश होना पड़ा, जिसका वर्णन मैं माबू के प्रकरण में कर चुका हूँ, और इन चट्टानों में काट कर बनाई हुई सीढ़ियों से गुजरते समय बाई ओर की चट्टान से टकराती हई डोली और दायीं ओर देखने पर पन्द्रह सौ फीट गहरी खाई [खन्दक के मेरे अनुभव विशेष अनुकूल और रुचिकर नहीं थे। ग्यारह बजे मैंने सौराष्ट्र के प्राचीन राजाओं के प्रासाद में पहुँचाने वाले दरवाजे में प्रवेश किया, जिसकी काली-काली दीवारें विश्व के सम्मिलित राजाओं का भी मुकाबला करने के लिए सक्षम हैं। 'रूढ़ मान्यता' को भी भ्रष्टता से बच कर अपना मन्दिर बनाने के लिए इससे अच्छा और सुरक्षित स्थान शायद ही मिल पाता और उन लोगों के लिए बैठ कर अपने आत्मा को परमात्म-साधन में लगाने के लिए इससे बढ़ कर कोई उपयुक्त स्थान भी नहीं था।
यहाँ चट्टान के किनारे खंगार के महलों में एक प्रहरी-कक्ष में बैठ कर, जिसको छत दो नोकदार मेहराबों पर टिकी हुई है, मैंने प्रातराश किया। इस समय 'जूनागढ़' से लगभग तीन हजार फीट की ऊंचाई पर खण्डहरों में बैठा हुआ में उस (जूनागढ़) के खण्डहरों की ओर नीचे देख रहा था। ऊपर की ओर पहाड़ की चोटी पर पूरे छः सौ फोट की ऊंचाई पर 'देवमाता' [अदिति ?] का मन्दिर दिखाई देता था जिससे भी ऊपर एक और पर्वत-शृंग मुकुटायमान दृष्टिगत हो रहा था । इन सभी स्थानों पर पहुंचना बड़े साहस का काम था।
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