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________________ प्रकरण - १८, कालिका मन्दिर; नरभक्षी । ३६३ लिए सदावत चालू कर रखा था। मैं उससे बातचीत करने की अपेक्षा करता परन्तु इच्छा और शारीरिक शक्ति का समन्वय नहीं हो पा रहा था। कालिका के मन्दिर तक न पहुंचने पर मुझे बड़ी चिड़चिड़ाहट-सी हुई क्योंकि इसके बारे में परम्परागत और सार्वजनिक रूप से बहुत-सी रहस्यभरी बातें प्रचलित थीं। मैंने गायकवाड़ के प्रतिनिधि लल्ल जोशी को, उसके मना करने पर भी, पहले ही से कह दिया था कि चाहे कितनी भी मुसीबत हो उस भयानक स्थान पर पहुँचना ही है, परन्तु, उसने और अन्य साथ वालों ने मेरे आकस्मिक लंगड़ेपन को बड़ी गम्भीरता से इस भ्रष्ट संकल्प का परिणाम बताया। इस भयानक मार्ग में जाने की कोई यात्री हिम्मत ही नहीं करता, और, लोककथाएं कहती हैं कि, यदि कभी किसी ने ऐसी मूर्खता की भी तो उसे अपनी इस धृष्टता का बड़ा महँगा मूल्य चुकोना पड़ा है। कहते हैं कि एक अनजान व्यक्ति देवापराधी यात्रियों के साथ हो लेता था और आगे चल कर अपना बनावटी वेष छोड़ने पर वह स्वयं 'माता' सिद्ध हुई। इस माता की पूजाविधि भयंकर अघोरी द्वारा सम्पन्न होती है, जिसकी अधिष्ठात्री होने के कारण वह 'अघोरेश्वरी माता' कहलाती है; और इन्हीं नरमांस-भक्षी अघोरियों का कुछ भेद जानने की प्रबल इच्छा के कारण में कालिका-माता के शिखर तक अपनी थकान-भरी यात्रा को बढ़ाने के लिए लालायित हो रहा था अन्यथा और किसी भी दृष्टि से उधर कोई प्राकर्षण नहीं था। पहले कभी ये लोग किसी संख्या में इस क्षेत्र में रहते थे; परन्तु बहुत बड़े हिंसक पशुओं के समान वे घोर भयानक स्थानों में ही पाये जाते थे, जैसे-पर्वत, गुफाओं अथवा घने जंगलों की अंधेरी झुरमुटों आदि में। मैं इस विषय का अन्यत्र स्पर्श कर चुका हूँ अतः यहाँ कुछ अतिरिक्त उपाख्यानों से ही तथ्यों की पुष्टि करूंगा। मर्दखोरों अथवा नरभक्षियों में से किसी अघोरी के नाम पर ही यह 'अघोर शिखर' कहलाता है, जो वहाँ पर स्थायी रूपसे बस गया था। इन पशुओं में से एक का नाम गाज़ी था, जो कभी-कभी अपनी पर्वतीय मांद को छोड़ कर भूख मिटाने के लिए नीचे के मैदानों में उतर आता था । अन्तिम बार जब उसको देखा गया तो एक जीवित बकरा और शराब से भरा मिट्टी का पात्र उसके सामने रखा हुआ था। उसने उस जानवर को दाँतों और नाखूनों से फाड़ डाला, खोला और खून और शराब पीकर उसी के अवशेषों में सो गया; फिर जगा, फिर उसको खोला और खून और शराब पीकर जंगल को लौट गया । १८१६ ई० में मैंने अपने मित्र मिस्टर विलियम्स (जो अब मेरे साथ हैं) को इन राक्षसों के बारे में अपील की थी। उनका उत्तर इस प्रकार था-'जब मैं काठियावाड़ में था तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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