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प्रकरण - १३; बलभी संवत्
[ २८५ के वंशज हैं, जिनको संवत् ३०० (२४४ ई०) में इसके विध्वंस के समय यहाँ से निकाल दिया गया था। मुझे जिन लोगों से जानकारी प्राप्त हुई वे विद्वान जैन साधु थे और उन्होंने सभी तथ्यों के प्रमाण अपनी पोथियों एवं परम्परागत अनुश्रुतियों के आधार पर प्रस्तुत किए थे। उपर्युक्त दोनों ही सूचना-स्रोतों के आधार पर उन्होंने इसकी प्रसिद्धि, प्राचीनता, विस्तार, विशालता और इतिहास में उस समय जैन-धर्म का मुख्यकेन्द्र होने के विषय में बातचीत की जब कि यहाँ पर सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। मेरे समान उनका भी यही अनुमान था कि सूर्य और सौर में समानता थी, और अपर शब्द के आधार पर ही इस प्रायद्वीप का नाम (सौराष्ट्र अथवा सौर द्वीप) पड़ा था और उपर्युक्त दोनों नामों की उत्पत्ति सूर्योपासना के कारण ही हुई थी। मेरी इस प्रसंगोपात्त किन्तु महत्वपूर्ण खोज के भी यहां पर पर्याप्त प्रमाण मिले कि बलभी का एक स्वतन्त्र संवत् प्रचलित हुअा था-जैसे कि मेवाड़ में मयणल (मेनाल] का शिलालेख, जो 'बलभी के द्वारों' की अोर आकर्षित करता हुआ यहां के राजाओं की महत्ता का प्रमाण उपस्थित करता है और यह भी सिद्ध करता है कि वे वलभी से ही निकल . कर उधर गए होंगे, क्योंकि उत्तर से आने वाले आक्रमणकारियों ने यहाँ के वैभव को नष्ट कर के 'सूर्य-कुण्ड की पवित्रता को गोमांस से भ्रष्ट कर दिया था।'..
अब तक भी पुस्तकें और अनुश्रुतियां दोनों ही बल्ल जाति को बलभी के राजाओं से सम्बद्ध बताते हैं । उनका कहना है कि कनकसेन, जो. लव अथवा लोह का (अयोध्या के सूर्यवंशी राजा का ज्येष्ठ पुत्र, जो पञ्चालिका अथवा.
आधुनिक पंजाब के लोहकोट में बस गया था) वंशज था, वहां से इस प्रायद्वीप में आ गया था और उसने धानुक [धेनुका) को अपना निवास स्थान बनाया था, जो प्राचीन समय में मूजीपट्टण कहलाता था। तत्पश्चात् बालक्षेत्र पर विजय प्राप्त करके उसने बाल राजपूत की पदवी धारण को। बालक्षेत्र के स्वामी ही 'बाल-का-राय' कहलाए क्योंकि, निस्सन्देह ही, बल्हस राजाओं के लिए बहुधा प्रयुक्त इस पद की उत्पत्ति इसी कारण से हुई होगी। धानुक अब भी एक बल्ल जातीय राजा के अधिकार में है और इस प्रायद्वीप में भली-भांति प्रसिद्ध है। यद्यपि ये लोग अपने को विशुद्ध राजपूत कहते हैं, परन्तु लोगों का कहना है कि इनका रक्त काठियों से मिश्रित हो चुका है। उधर, काठी कहते हैं कि वे भी बल्लों की ही एक शाखा हैं और दोनों ही, अनुश्रुतियाँ तथा 'भाट का विरद' अर्थात् 'तत्त मुल्तान का राय', काठी की स्थिति वहीं जाकर बताते हैं, जहां पर काठी ने अलक्षेन्द्र से टक्कर ली थी, अर्थात् लोहकोट में, जो इस जाति का उद्गम स्थान है । अब हमारी प्राशा काव्य पर लगी हुई है । ।
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