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________________ २० ] पश्चिमी भारत की यात्रा बेरॉमीटर २७°३२′ प्रोर थर्मामीटर ७६° पर थे - यह प्रयनवर्ती भारत के प्रत्युष्ण दिनों में इङ्गलैण्ड के साधारण गरमी के दिनों जैसा था । राजधानी की घाटी की अपेक्षा कैसा अच्छा मौसम था ! वहाँ तो, मेरे रवाना होने के दिनों, सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों ही समय यह थर्मामीटर ६५° पर ही टिका रहता था । इस खुशी के कारण, बिना सोचे समझे ही मैंने अपनी ( खश की) टट्टियाँ फिंकवा दीं । प्रागे चल कर मुझे अपने इस कार्य के लिए बहुत पछताना पड़ा । उस दिन शाम को दक्षिण-पश्चिम से प्राने वाली हवा से कुछ बूंदाबांदी हुई । इस पहाड़ी प्रदेश की यात्रा करने में मेरी रुचि पद-पद पर बढ़ती जा रही थी; प्रकृति की प्रत्येक वस्तु, हलचल, जानवर और वनस्पति में नवीनता थी । हमने सुन रखा था कि इन जंगलों में बादाम और श्राडू के पेड़ बहुत हैं और इतनी धनी तादाद में कि इस फल का गूदा, जिसको यहाँ के लोग श्राडू-बादाम कहते हैं, निर्यात की वस्तु गिनी जाती है । हमने इनको कुम्भलमेर की घाटी और देलवाड़ा के दर्रे में देखा था । हमने सोचा था कि लाडू बोया जाता है परंतु यह स्थान बहुत लम्बे समय तक मरहठा सरदारों का निवासस्थान रहा था अतः हमारा यह संदेह तब तक बना रहा जब तक कि हमने एक कुए के अग्रभाग के पत्थर की दरारों में स्वतः उगे हुए कुछ पेड़ देख न लिए । श्राज की मंज़िल में भी हमने ऐसी ही कुछ दरारें देखीं । प्राश्चर्य प्रकट करने पर मुझे बताया गया कि कुम्भलमेर की घाटी में ऐसी बहुत-सी दरारें हैं जिनमें कई विचित्र और उपयोगी स्वदेशी पौधे उगे हुए हैं । खट्टे सेव के अलावा सालू या सालू मिश्री होती है जो या तो हमारे औषधि कोष में जिसको आरारोट कहा गया है, वह है श्रथवा ऐसा ही कोई अन्य पौधा है जो वैसा ही माँडी जैसा द्रव्य उत्पन्न करता है । मुझे समझाया गया कि यह कोई जड़ नहीं है वरन् एक बेल होती है जिसमें हाथों की अंगुलियों के समान उभरे हुए गुच्छे निकलते हैं । प्रस्तु वे इसको उपयोग के लिए तैयार न कर सके या उन्होंने करना नहीं चाहा, मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है । शायद वे इसे सेम की फलियों के समान बताते थे, यदि ऐसा है तो यह वही चीज है जिसको डायोडोरस सीक्यूलस' ने कैलॅमस बताया है और जो १ ग्रीक इतिहासकार, जिसने ई० पू० ६०-५७ में मिस्र में भ्रमण किया था और ४० भागों में Diodorus of Sicily नामक इतिहास लिखा था । उसने लिखा है 'यहाँ पर ( Calamus ) बहुत अधिक मात्रा में पैदा किया जाता है जिसके फल शक्ल में सफेद चला जैसे होते हैं । इनको इकट्ठे करके गरम पानी में रख देते हैं और जब ये फूल कर कबूतर के अण्डे के बराबर हो जाते हैं तो हाथों से गूंद कर इसकी स्वादिष्ट रोटियाँ बनाते हैं । (Diad. Sis. Book II., C. 4) उक्त पुस्तक का C. H. Oldfather कृत अंग्रेजी अनुवाद १९३३ में प्रकाशित हुआ है । -Imp. Lib. Cat., Calcutta, 1939. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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