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प्रकरण - ४, विजयपुर की भायात
[ ५३ का खर्रा प्राप्त हुआ और आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस जती {यति] ने मुझे यह नामावली दी थी वह अब भी अर्थात् तेरह शताब्दियां बीत जाने पर भी 'गुरु' के सम्मान्य पद का उपभोग कर रहा था । धार्मिक मामलों में राजपूत लोग प्रायः सहनशील होते हैं और वर्तमान राणोजी तो ऐसे हैं ही। अस्तु, जैन-मतावलम्बियों के प्रति इन लोगों का व्यवहार विशेष सम्मानपूर्ण होता है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि उक्त भावना जैनों की धार्मिक अथवा सामाजिक विशेष स्थिति के कारण है परन्तु ( इतना अवश्य है कि ) यह उनके पूर्वजों के प्रति किन्हीं महत्त्वपूर्ण सेवानों के परम्परागत कृतज्ञभाव के कारण से उद्भूत है जो सम्भवतः उन्होंने वलभी के नाश के अवसर पर की होगी । मुझे अच्छी तरह याद है कि जब कभी किसी जैन के विषय में महत्त्व का मामला उठता और मन्त्री इस बात पर जोर देता कि उसके कब्जे में ऐसी जायदाद है जिस पर उसका कोई हक नहीं है और वह सार्वभौम शासक (राणा) द्वारा अधिग्राह्य है तब यह कह कर बात टाल दी जाती थी कि उसे तंग न किया जाय क्यों कि राणाजी के पूर्वजों पर इस सम्प्रदाय का इतना बड़ा आभार है कि जिससे वे तथा उनके पंशज कभी उऋण नहीं हो सकते । इस भावना से प्रेरित होकर तथा अपनी सर्वधर्मप्रियता की प्रवृत्ति के कारण ही जब कभी जैन साधु अपने अनुयायियों को दर्शन देने के लिए मरुभूमि को जाते समय उदयपुर हो कर निकलते तब राणाजी स्वागत के लिए उनकी अगवानी करते और राजधानी तक साथ साथ पाते । इन लोगों को जो रियायतें और अधिकार-पत्र मिले हुए हैं उनके बारे में मैं 'इतिहास' में विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुका हूँ। ___ बीजीपुर [विजयपुर] चार भागों में बँटा हुआ है और राजपूतों के कब्जे में है जो नाणा बेड़ा (Nana Bera) को भायात (Bhya'd) या बिरादरी के कहलाते हैं और जिनका मुखिया नाणा (Nana) में रहता है। ये अमर (वीर) राणा प्रताप के वंशज हैं और व्यावहारिक उपाधि 'बाबा' अथवा 'बालक' का उपयोग करते थे तथा राणाजी के दरबार में सनवाड़ के सरदार' के बराबर सम्मान प्राप्त करते थे। किन्तु बाली तथा इस भूभाग से युक्त गोड़वाड़ प्रांत के मारवाड़ के राजाओं द्वारा विश्वासघातपूर्ण अपहरण होने के साथ हो
' सनवाड़ के सरदार महाराणा उदयसिंह के तीसरे पुत्र वीरमदेव के वंशज होने से वीरम
देवोत राणावत कहलाते हैं और 'बाबा' उनका खिताब है । खेराबाद के बाबा संग्रामसिंह के छोटे पुत्र शम्भुसिंह को सनवाड़ की जागीर मिली थी।
-उ०रा०६०, जि० २, पृ० ६६६
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