SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकरण - ३; भीलों की स्वामिभक्ति [ ४१ दार रहा । राणानों और दिल्ली के बादशाहों के बीच हुए विनाशकारी युद्धों में इन वनपुत्रों का राणानों पर पूरा प्रभार रहा है क्योंकि इन्होंने उन (राणानों ) की तो रक्षा की ही परन्तु इससे भी बढ़ कर वह कार्य किया जो राजपूतों को आत्म-रक्षा से भी अधिक प्रिय है अर्थात् उनकी स्त्रियों और लड़कियों को उन शत्रुनों के हाथों से बचाया जिनका स्पर्श भी उनको भ्रष्ट कर देता । हमने इन लोगों का उस समय का वर्णन भी किया है जब अमर [वीर ] प्रताप अपने दुर्दमनीय शत्रु से लोहा ले रहा था तब ये उसका खजाना जावर की खानों में ले जा रहे थे और फिर जब वह स्थान भी सुरक्षित नहीं मालूम हुआ तो उसे घाटियों के उस मार्ग में होकर अन्यत्र ले गए जो केवल उन्हीं को ज्ञात था । अभी इससे भी बाद की बात वह है जब कि महान् सिंधिया' ने राजधानी को घेर लिया था तब इसकी सब प्रकार से रक्षा बहुत कुछ इसीलिए हो सकी थी कि भीलों ने झील में होकर घिरे हुए लोगों के लिए रसद पहुँचाई । परन्तु वे उत्साहपूर्ण दिन, जो भीलों और उनके स्वामियों के हृदय में उथल-पुथल मचा देते थे, अब एक गौरवहीन अकर्मण्यता में बदल गए हैं और उनमें गरीबी एवं दमन से उत्पन्न होने वाले सभी दुर्गुण पैदा हो गए हैं । यह देख कर आश्चर्य होता है कि इन वनपुत्रों और इनके श्रेष्ठ स्वामियों का इतना पतन हो गया है कि जिनसे वे सुरक्षित होते थे उन्हीं के द्वारा दबाए जाने पर उन्हीं के यहाँ चोरी करते हैं; जहाँ पहले चौकसी करते थे, जिनका सम्मान करते थे उन्हीं से घृणा करते हैं और जिनसे डरते थे उन्हीं को तुच्छ समझने लगे हैं । भावनाओं का ऐसा परिवर्तन उस समय पूरी तरह अपना कार्य कर रहा था जब कि सन् १८१७-१८ ई० में उनके और अपने स्वत्वों की पुनः प्राप्ति के लिए माँग करने वालों के बीच में मुझे मध्यस्थ बनना पड़ा था । मैं यह लिख चुका हूँ कि मेरे ब्राह्मण प्रतिनिधि ने किस प्रकार पश्चिमी पहाड़ों में बसे हुए ७५० गाँवों और गाँवड़ों से सन्धियां कीं और सूर्य की साक्षी देकर अथवा हल, कटार या धनुषबाण की निशानी बना कर पुष्ट की हुई ये सन्धियाँ, जो पश्चिम के घुड़सवार की 'मेरा रकाब मेरा साथ न दे' सौगन्ध के समान है, धर्म के साथ पूर्ण रूपेण पूरी की गई। शान्ति और व्यवस्था कायम हो गई तथा उद्योग के बीज बो दिए गए, परंतु मेरी अनुपस्थिति से लाभ उठा कर कहीं-कहीं श्रेष्ठ (?) राजपूतों अपनी अनुचित कार्यवाहियों को फिर दोहराया और कुछ पुराने झगड़ों के वैर का निर्दयतापूर्वक चुकारा कर दिया। काबों (Kaba) का भी एक ऐसा ही दुष्टता १ यह घटना माधवराव सिंधिया के समय सन् १७६६ ई० की है । उ. रा.इ.; पृ. ६५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy