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प्रकरण - १४; चौमुखी प्रादिनाथ की प्रतिमा
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यद्यपि बहुत से यूरोपवासियों ने इस विषय में अपने आप कितनी ही उलझनें पैदा करली हैं । वे इन पवित्र पर्वतों की यात्रा करें और इस जलाशय के तट पर बैठ कर प्रचलित रीति से इस मत के आचार्यों से श्रद्धापूर्वक ज्ञानामृत का पान करें ।
जल्दी ही हम मोदी द्वारा सफेद संगमर्मर से बनवाये हुए उस मन्दिर में पहुंचे जो यहां पर साधारणतया रत्नघोर (गृह) कहलाता । इसमें आदिनाथ की संगमर्मर - निर्मित पांच मूर्तियां हैं; कहते हैं कि ये पाण्डव बन्धुओं की मूल कृतियां हैं, जिनमें से प्रत्येक ने एक एक मूर्ति 'श्रादि जिनेश्वर' को अर्पित की थी और एक छठी मूर्ति, जो नीचे है, माता कुन्ती की आस्था का परिणाम मानी जाती है, जो वनवास काल में उनके साथ इस भूमि पर आई थी । द्वार के पास ही 'पञ्चपाण्डव-निवास' है, जिसके प्रति सभी मतों के यात्री श्रद्धा प्रकट करते हैं । इससे थोड़ी दूर चल कर एक जलाशय है जो जिञ्जकुण्ड कहलाता है ।
परकोटे में बने हुए एक दरवाजे से निकल कर हम 'मोदी टूक' से शिवासोमजी के टूक पर गए जो अहमदाबाद के एक धनिक नागरिक थे । उनकी पवित्र दानशीलता के फलस्वरूप उनका नाम उस पूजनीय प्रतिमा के साथ जुड़ गया, , जिसके मन्दिर का जीर्णोद्धार उन्होंने करवाया था; यह मन्दिर मूलत: विक्रम संवत् की उन्नीसवीं शताब्दी पूर्व का समकालिक था । मूर्ति का नाम चौमुखी प्रादिनाथ है, जो मुख्य मन्दिर वाली ११ फीट ऊंची मूर्ति से विशालता में किसी प्रकार कम नहीं है । कहते हैं कि इसके एक-एक पत्थर को मारवाड़ की पूर्वीय सीमा पर स्थित मकराणा की खान से यहां लाने में प्राठ हज़ार पौण्ड व्यय हुआ था; परन्तु उन्हें इसके लिए इतनी दूर जाने की श्रावश्यकता नहीं थी क्योंकि इससे भी अच्छा संगमर्मर आबू तथा पास ही अरावली पहाड़ में खूब मिलता है । 'शत्रुञ्जय माहात्म्य' के एक पत्र पर इस कार्य का लेख मिलता है'संवत् १६७५ सुलतान नसरुद्दीन जहाँगीर सवाई विजय राज्ये धौर शाहजादा सुल्तान खुसरू व खुर्रम के समय में । शनिवार, बैसाख सुदि १३ (२८ बैसाख ) देवराज और उनके परिवार, (जिसके सोमजी और उनकी पत्नी राजुलदेवी थी), ने चतुर्मुख आदिनाथ का मन्दिर बनवाया । इसके बाद आचार्यों की एक लम्बी सूची है, जो मैंने छोड़ दी है। इसी में 'जिनमाणिक्य सूरि' का नाम प्राता है, जिनके लिए यह प्रशस्ति है कि उन्होंने अपने धर्म के हेतु प्राप्त प्रथम वरदान के रूप में बादशाह अकबर से यह फरमान प्राप्त किया था कि जहाँ-जहाँ जैन धर्म की मान्यता है वहाँ पशुबध नहीं होगा । उसके शक्तिशाली साम्राज्य में विभिन्न मतों की धार्मिक मान्यताओं के प्रति इस विवेकपूर्ण समादर - भावना के
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