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जानकारी प्राप्त की । उनके जातीय संगठन, उनके रहन-सहन, उनके श्राहारविहार, उनके अन्धविश्वासों, उनके भोलेपन तथा भील घातक के प्रति अक्षम्यता आदि पर टॉड ने जो कुछ लिखा है, वह उनका मानव-विज्ञान विषयक अध्ययन करने वालों के लिये ऐतिहासिक महत्त्व का है ।
प्रस्तावना
ऐतिहासिक खोज और उसके द्वारा भूतकालीन इतिवृत्त की अज्ञात लुप्त तथा विशृंखलित कड़ियों को जोड़ने के लिये टॉड सदैव ही समुत्सुक रहा । वह जानता था कि "इन प्रदेशों में ऐसी सामग्री की कमी नहीं हैं जिसका उपयोग शोध ( विषयक प्रवृत्ति ) को समान रूप से सम्मानित और प्रोत्साहित करने में किया जा सकता है । शिलालेखों के आधार पर चरित्रों एवं ऐतिहासिक वृत्तों के तिथिक्रम के तथ्यों को निश्चित करना, भाटों के लेखों से ( अनेकानेक ) नामधारी विदेशी जातियों के उत्तरी एशिया से चल कर इन प्रदेशों में श्रा बसने के क्रम का पता लगाना, उन विभिन्न पूजा-प्रकारों पर विचार करना जो वे अपने 'पूर्वं पुरुषों की भूमि' से यहाँ पर लाए और यहाँ से जिन लोगों को हटा कर वे बस गए, उनके रहन-सहन आदि के तरीकों में घुलने मिलने से जो भी थोड़े-बहुत परिवर्तन हुए उनके विषय में अनुमान लगाना, तथा इस बात की भी शोध करना कि उनकी प्राचीन आदतों और संस्थानों में से कितनी श्रब भी बच रही हैं- ये ऐसे विषय हैं जो किसी भी विचारशील मस्तिष्क के लिये कदापि हीन या उपेक्षणीय नहीं हैं, और यहाँ शोध के लिये पूरी-पूरी सुविधाएं प्राप्त हैं ।" "
यही कारण या कि जहाँ भी टॉड गया वह सदैव पुराने शिलालेखों, प्राचीन सिक्कों, हस्तलिखित ग्रंथों आदि की खोज में रहा । आबू, चंद्रावती, सिद्धपुर, अन हिलवाड़ा (पाटन), खम्भात, वल्लभी, पालितानाशत्रुंजय, सोमनाथ- पट्टन, जूनागढ़ - गिरतार, गूमली, द्वारका, आदि के महत्वपूर्ण मंदिरों, बावड़ियों और खण्डहरों में ही नहीं, राह में पड़ने वाले सारे नगण्य और उपेक्षित परंतु संभावित स्थानों में भी शिलालेखों की खोज की और जहाँ जो भी उपयोगी जान पड़ा उसकी तत्काल ही प्रतिलिपि करवा ली । यों ही उसने अपनी पहिले की भी यात्राओं में अनेकानेक शिलालेखों को एकत्र किया था तथा उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार करवा कर उन्हें पढ़वाने तथा समझने का प्रयत्न किया था। टॉड द्वारा यों ढूंढ निकाले गये कई एक शिलालेख उन प्रतिलिपियों या उनके इन उल्लेखों द्वारा ही अब आधुनिक इतिहासकारों
१. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ० २२५ से संकलित ।
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