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प्रकरण
१४; शत्रुञ्जय के शिखर
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अब फिर प्रकृत विषय पर आते हैं। यह पहाड़ तीन भागों में बँटा हुआ है, जो 'टूक' कहलाते हैं; पहले का नाम मूलनाथ है, दूसरा सिवर सोमजी [शिवा सोमजी ] (Sewar Somji) का चौक कहलाता है, जो ग्रहमदाबाद का धनी मूल निवासी था । उसने संवत् १६७४ (१६१८ ई० ) में मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया एवं चारों प्रोर पक्की दीवार बनवाई थी, जिसमें बहुत बड़ी धनराशि खर्च हुई थी क्योंकि 'चौरासी हजार रुपये (लगभग दस हजार पौण्ड ) तो माल मसाला लाने के बारदाने में ही व्यय हुए थे ।' तीसरा भाग बड़ौदा के एक धनी धान-व्यापारी के नाम पर 'मोदी का टूक' कहलाता है, जिसने भी इसी प्रकार इन पर लगभग अर्द्धशताब्दी पूर्व ही विपुल धनराशि व्यय की थी । इन मन्दिरों में विविध प्रकार की पवित्र वस्तुएं, निम्नलिखित प्रकार से उनकी पुरातनता के आधार पर रखी गई हैं
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'पहली इमारत भरत ने बनवाई थी, दूसरी उसी की आठवीं पीढ़ी में हुए धुन्ध वीर्य ! दण्डवीर्य ] ने, तीसरी ईशानेन्द्र (Isa Nundra) ने, चौथी महेन्द्र ने, पांचवीं ब्रह्मेन्द्र ने, छठी भवनपति ने ( Bhowun patti) ', सातवीं सगर चक्रवर्ती ने आठवीं विन्त्र इन्द्र [व्यन्तरेन्द्र ] ने, नवीं चन्द्रयशा [ ? ] ( Chandra Jessa) ने, दशवीं चक्रायुध ( (Chakra Aevnda ) ने ग्यारहवीं राजा रामचन्द्र ने, बारहवीं पाण्डव बन्धुनों ने, तेरहवीं काश्मीर के व्यापारी जावड़ शाह ने विक्रमादित्य से एक सौ वर्ष बाद बनवाई, चौदहवीं अणहिलवाड़ा के राजा सिद्धराज के मन्त्री
देव [बाहड़ ] मेहता ने पन्द्रहवीं दिल्लीपति के काका सुमरा सारङ्ग [समराशाह ] ने संवत् १३७१ ( १३१५ ई० ) में श्रौर सोलहवीं का चित्तौड़ के मन्त्री कर्मा शाह डोसी [?] ( Carma Dasi) 'देवताओं के दास' ने संवत् १५७८ ( १५२२ ई० ) में निर्माण कराया ।"
यह भी लिखा है कि जावडशाह (जो मूर्ति को यहाँ लाया था ) अन्त में प्राचीन नगरी मधुमावती ( वर्तमान महुवा) में ही सौराष्ट्र के किनारे पर बस
गया था ।
" जिनहर्ष गरिए और समयसुन्दर उपाध्याय ने षष्ठ उद्धार का कर्ता चमरेन्द्र लिखा है, वह 'भुवनपति' भी कहलाता है ।
ગ્ शत्रुञ्जयरास और माहात्म्य में इस उद्धार का समय विक्रम से १०८ वर्ष बाद लिखा है । बाड (वाग्भट ) मेहता ने वह उद्धार सं० १२१३ में कराया था । वह, वास्तव में कुमारपाल का मंत्री था ।
यह संवत् १५८७ होना चाहिए ।
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