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पश्चिमी भारत की यात्रा
अथवा बढ़ावा हुआ था वह पवित्र माना जाता है । तुलसीश्याम से दो मील इधर ही हम वहाँ के पवित्र दृश्यों में से उस स्थल पर पहुँचे जहाँ पाण्डवों की माता कुन्ती ने अन्तिम विश्राम लिया था और अपने वात्सल्यपूर्ण व्यवहार से इसे पवित्र बना दिया था । शत्रुनों के गुप्तचरों से बचते-बचाते जब पांचों भाई वन में घूमते हुए इस स्थान पर पहुंचे तो उनकी माता थकान और प्यास से त्रस्त होकर मूर्छित हो गई, परन्तु उसे पुनः चेतना में लाने के लिए कहीं भी पानी नहीं मिला, तब भीम ने अपनी गदा से एक चट्टान को तोड़ा और वहीं पानी का एक फव्वारा छूट पड़ा। परन्तु यह पुण्य कार्य बहुत घातक सिद्ध हुआ क्योंकि कुन्ती के जीवन की चिनगारी और प्यास एक साथ ही बुझ गई । ' यहीं पर उसका अन्तिम संस्कार किया गया और स्मृति में एक छोटा-सा मंदिर बनाया गया, जिसका अनुवर्ती युगों में श्रद्धा एवं सम्मानपूर्वक पुनरुद्धार होता रहा । हमारे मार्ग में बाँई ओर एक पगडण्डी उस स्थान को जाती है जहाँ कोई भी यात्री चट्टान में एक दरार को देख सकता है, जिसमें से स्वच्छ पानी का करना इस अनुश्रुति की सम्पुष्टि करता हुआ भरता है और इसका पानी सदा से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रहा है और आजकल भो इधर का 'हवा पानी' वर्जित है ।
इसी स्थान से सम्बद्ध एक और भी कथा प्रचलित हैं, जो सम्भवतः श्रधिक सही है । कहते हैं कि श्रीकृष्ण और दानव तुलसी के युद्ध का अखाड़ा यही था, जिसकी पराजय श्रौर मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण ने गतश्रम होकर शुद्ध होने की इच्छा की तब उनके बन्धु बलदेव ने अपने हल की फाल से चट्टान पर चोट मारी । तभी इसकी दरार में से झरना जारी हो गया । यह दरार अब तक भी 'बलदेव की फाड़' कहलाती है और बहुत ध्यान से देखने पर, जिसे पवित्र वात्सल्य के पुजारियों ने पाण्डवों को मानवता की मूर्ति मान रखा है, मुझे वह 'भारतीय हरक्यूलीज' की प्रतिमा प्रतीत हुई और भूल से बचने के लिए उसकी पीठिका पर बलदेव का नाम भी उत्कीर्ण करा दिया गया। वे सभी समकालीन थे और साथ रहते थे; उनका कुल 'हरिकुल' अथवा हरि का कुल कहलाता था । 'हरि' श्रीकृष्ण की विशेष उपाधि थी ।
'तुलसीश्याम' एक बहुत पवित्र स्थान है, जो श्याम ( श्रीकृष्ण के साँवले रंग का द्योतक पर्याय) और सौराष्ट्र के तूल नामक दैत्य के युद्ध का अखाड़ा होने
महाभारत से तो इस कहानी का मेल नहीं बैठता । पाण्डवों को माता कुन्ती का अन्त तो महायुद्ध में उसके पुत्रों की विजय के अनन्तर हुआ था जब वह धृतराष्ट्र और विदुर के साथ वनवास में चली गई थी ।
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