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पश्चिमी भारत की यात्रा
__ 'जनागढ़' की निर्माण प्रायोजना को किसी वर्ग-विशेष में नहीं रखा जा सकता। यह एक अनियमित विषम-कोण एवं विषम-बाहु प्राकृति वाला क्षेत्र है, जिसको ऊपर का रेखाचित्र देख कर हो अच्छी तरह समझा जा सकता है । मैंने इसके कोणों को लेकर चाहरदीवारी के तीन तरफ कदमों से माप कर बनाया है। दक्षिणी दीवार, जो सबसे छोटी है और जिसमें मुख्य द्वार भी है, केवल ७०० गज लम्बी है; पूर्वीय मुख, जिसमें भी एक द्वार बना हुआ है, एक सीधी दीवार के रूप में है और ८०० गज का है। इनमें प्रत्येक अोर सत्रह-सत्रह छतरियां बनी हुई हैं और उनके बीच की पतली दीवारों से अधिक जगह रुकी हुई नहीं है। पश्चिमी दीवार सबसे बड़ी है और लगभग दो मील लम्बी है। उत्तरी दीवार अत्यन्त टेढ़ी-मेढ़ी है; यह लम्बाई में एक सौ गज अधिक है और इसके सिरे पर भी एक द्वार बना हुआ है। इस प्रोर की विशाल प्राकार-भित्ति सोनारिका के किनारे-किनारे चलो गई है, जो गहरी-गहरी करारों की चट्टानें काट-काट कर बनायी गई है; अतएव यह दीवार सर्वाधिक सुदृढ़ है। चट्टान को ही काट कर एक खाई भी बनाई गई है जो कहीं बीस और कहीं तीस फीट गहरी है तथा इससे कुछ ही कम चौड़ी है; इससे निकली हुई सामग्री से ही किले की दीवारें बनो हैं, जो ठीक खुदी हुई दीवार के ऊपर ही उठाई गई हैं कि जिससे चारों तरफ साठ से अस्सी फीट तक ऊंचा प्राकार बन गया है और जहाँ-जहाँ नदी का किनारा आ गया है वहां-वहाँ तो सौ फीट की सीधी ऊँचाई हो गई है। परकोटे पर बाहर की ओर तोप रखने के स्थान से क्रमिक ढलाव भी है कि
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