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________________ प्रकरण - १७; जूनागढ़ [ ३७५ जिससे यदि उन दिनों में तोपें भी दागो जाती तो, दोवार के मलबे से खाई के भर जाने की कभी कोई आशंका नहीं थी । उत्तर की ओर से दृश्य और भी प्रभावकारी है। पहाड़ी श्रेणी के खुले भाग में से एक मात्र गौरवपूर्ण गिरनार दिखाई पड़ता है, जिसके प्राकृतिक प्रवेश-द्वारों में से एक का सार्थक नाम दुर्गा 'दुर्गस्था प्रकृतिमाता' (Cebeile) के नाम पर है और उधर 'स्वर्ण-प्रवाहिनी' सोनारिका सँकडे मार्ग में होकर किले की दीवारों की ओर बहती हुई दृष्टिगत होती है, जिससे वियुक्त होते ही दोनों प्रोर किनारों पर छाये हुए घने जंगलों की छाया से इसका मुख मलिन पड़ जाता है । मिस्टर विलियम्स के प्रभाव से हमको किले में प्रवेश मिल गया। कहते हैं कि यह सुविधा पहले किसी यूरोपियन को प्रदान नहीं की गई थी। यद्यपि इसके भीतर की सभी प्राकृतिक समृद्धि समाप्त हो चुकी है, परन्तु अब भी बाहर से पूर्णतया प्राचीनता के अनुरूप उत्साह से ही इसकी रक्षा की जाती है । द्वार पर सैनिक रक्षा-दल ने हमारा स्वागत किया; सैनिकों की संख्या को देखते हुए सम्मान अथवा अविश्वास, दोनों हो अर्थों में अनुमान लगाया जा सकता है । परन्तु क्योंकि विशाल दरवाजे के चूल पर चरमराते हुए किवाड़ आधे ही खोले गए इसलिए दोनों ही तरह के मनोभावों के कारण ऐसा हुआ होगा, ऐसा सोच लेने में हमसे भूल नहीं हुई । यदि नगर की प्राचीनता के विषय में किसी प्रकार का सन्देह उत्पन्न हो तो किले को देखते ही वह दूर हो जाता है। यहाँ का प्रत्येक पत्थर हमें अतीत के उस समय की याद दिलाता है जब कि छप्पनकुल यादव भारत में सार्वभौम सत्ता का उपभोग करते थे। शामनाथ (बाद में जिन्हें देवत्त्व प्राप्त हुआ) के सौराष्ट्र में राज्यकाल का कोई भी समय निर्धारित किया गया हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि जब राणा के पूर्वज कनकसेन ने पञ्जाब में लोहकोट से आकर दूसरी शताब्दी में 'बालकादेश' पर विजय प्राप्त की तब भी यहाँ पर कोई यदुवंशी राजा राज्य करता था। हम गढ़ के दक्षिण-पश्चिमी कोने में दो विशाल अर्धचन्द्राकार मोरियों में से प्रविष्ट हुए, जो मुख्यद्वार की रक्षा के लिए बनी हुई थीं। पहले दरवाजे को पार करके हम एक चौक में पाए, जिसके दूसरे सिरे पर एक बहुत प्राचीन ढंग का दूसरा दरवाज़ा बना हुआ है । प्रत्येक दरवाजे के बाहर को प्रोर तो नुकोली मेहराब बनी हुई है, परन्तु भीतर की ओर बड़े-बड़े प्रयानिट पत्थरों के शीर्ष बने हुए हैं जिनके खुरदरे संगमरमर पर मोटो कुराई का काम हो रहा है। ये शीर्षपट्ट हर तरफ चार-चार खम्भों पर टिके हुए हैं, जो भो उसी पत्थर के बने हुए हैं। बोच में एक विशाल प्रांगन है जो - दरवाजों से घिरा हुआ है । इन दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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