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________________ ४३८ ] पश्चिमी भारत की यात्रा दुर्व्यबहार को छाप मोजूद न हो । कृष्ण के सहस्रनामों में से एक 'धन के पर्वत के स्वामी' गोरधननाथ' के मन्दिर में तो उल्लुनों ने एक उपनिवेश ही कायम कर लिया | गोरेजा या गोरीचा (गुरेचा ? ) में होकर हम सवेरे ही निकले थे । ये लोग इसको कच्छ गजनी ( Cacha Gazini) कहते हैं । यहाँ हमने दो प्रसिद्ध यवनों की मजारें देखीं, जिनके नाम अस्सा और पुर्रा (Assah and Purra) अज भी विचित्र कथानों में प्रचलित हैं । ये मज़ारें लम्बाई में बीस फीट से अधिक हैं और इनकी चौड़ाई भी इसी अनुपात से है; परन्तु, चरमरा में ही पाँच और मज़ारें बताई जाती हैं जो छत्तीस-छत्तीस हाथ लम्बी और छः छः हाथ चौड़ी हैं और इस बात का सूचन करती हैं कि पहले इस 'जगत्कूट' में जो असुर या यवन रहते थे वे वास्तव में दैत्याकार होते थे । बर्कहार्ड (Burkhardt ) ने फिलस्तीन में बी (नबी ? ) प्रशा ( Neby Osha) या पैग़म्बर होसी या ( ? ) की मज़ार का वर्णन करते हुए कहा है, 'यह एक ताबूत की शकल में है, छत्तीस फीट लम्बी, तीन फीट चौड़ी और साढ़े तीन फीट ऊँची; यह तुर्कों के मतानुसार बनाई गई है, जो यह मानते थे कि उनके सभी पूर्वज, मुख्यतः मोहम्मद से पहले के पैगम्बर दैत्याकार थे ।' आगे चल कर उन्होंने यह भी कहा है कि सीमोलो - सीरिया ( Coelo Syria) में नोहा ( नूह ) की मजार तो इनसे भी बड़ी है । यदि ये आरमरा के असुर प्रारमीयन ( Areanean) जाति के थे, जो प्राचीन असीरिया से आए थे, तो वे इन सब बातों में अपने पूर्वजों के रिवाजों का ही अनुसरण करते रहे होंगे । अब हम प्रारमरा के दैत्यों की कब्रों को छोड़ कर अधिक आकर्षक स्मारकों अर्थात् जल-दस्युओं के पालियों की ओर चलें, जो किसी भ्रामक भाषा में नहीं बोलते यद्यपि उन पर गूढाक्षरों के नमूने अंकित हैं; परन्तु कोई भी उनसे दोहरा अर्थं नहीं निकाल सकेगा क्योंकि टूटे-फूटे चबूतरों और भग्न छतरियों के पत्थरों में से जो दो बचे हुए हैं उन पर स्पष्ट उभरे हुए अक्षरों में 'युद्ध-रत त्रीकमराय के जहाज' ये शब्द कोरणी से अंकित हैं। इनमें से एक पालिया तीन मस्तूल की जहाज जैसा है जिसमें तोपों के लिए छिद्र बने हुए हैं; दूसरा अधिक पुराना और प्राचीन ढंग का जहाज है और उसमें एक ही मस्तूल है तथा युद्ध - • यह गोवर्धन का संक्षिप्त रूप है । इस नाम का एक पर्वत शौरसेन प्रान्त में जहाँ कृष्ण का जन्मस्थान है। यही पर्वत उनके प्रथम चमत्कार का साक्षी है । अब भी वहां लाखों यात्री जाते हैं और प्रतिवर्ष दूध से प्रतिमा का अभिषेक करते हैं । यहाँ 'गोवर्धन' का अर्थ लेखक ने 'धन के पर्वत का स्वामी' किया है जो स्पष्ट हो असंगत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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