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प्रकरण-२०; शङ्खोद्वार
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सम्बन्धो अाधुनिक आविष्कारों में से कोई भी चीज नहीं दिखाई गई है। ये दोनों ही जहाज पीछा करने की तैयारी में दिखाए गए हैं। एक जल-दस्यु नाविक ढाल और तलवार लिए चद्दर में से झपट कर निकलता हुआ बताया गया है और दूसरा अपनी नाव के अग्र भाग से उठता हुआ; इन्हें देख कर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये उन वीरों की प्रतिकृतियाँ हैं, जो यहाँ समाधिस्थ हैं । दूसरा पालिया ‘राना रायमल' का अभिलिखित स्मारक है "जिसने संवत् १६२८ (१५७२ ई.) में राजा का अाक्रमण होने पर 'साका' किया था; उसके इक्कीस सगे-सम्बन्धी भी साथ में मारे गये और जेठवानो सती हुई।" इक्कीसों ही शहीदों के पालिये यहाँ पर बने हुए हैं । एक और पालिया था जो तिथिक्रम में सब से बाद का और इन्हीं प्रारमरा के जल-दस्यों को स्मृति में बनाया गया था तथा पर्याप्त सूचना लिए हुए था "संवत् १८१६ (१७६३ ई०) में जदरू (Jadroo) खारवा समुद्र में मारा गया।' खारवा हिन्दू नाविकों का सुपरिचित नाम है।
पहली जनवरी, १८२३-जल-दस्युओं के द्वीप अथवा, जैसा कि अधिक बल देकर कहते हैं, बेट या 'द्वीप' को पार किया-परन्तु हिन्दुओं के शास्त्र में तो इसे शंखोद्वार अथवा 'शंखों का दरवाजा' कहते हैं और यह अत्यन्त पवित्र तीर्थों में गिना जाता है। यहीं पर कृष्ण या कन्हैया ने पीथियन 'अपोलो' की भूमिका सम्पन्न की थी और अपने शत्रु जल-नाग तक्षक का वध कर के पवित्र ग्रंथों का उद्धार किया था जिनको चुरा कर उसने उस महाशंख में छुपा दिया था। इसी कारण इस द्वीप का यह नाम पड़ा है । कन्हैया की पूरी कथा आलंकारिक भाषा में लिखी गई है, परन्तु वह न तो अरुचिकर है ओर न ऐसी ही है कि उसकी ग्रन्थियां न सुलझाई जा सकें। इन लोगों के पुराणों में इससे सरल उदाहरणात्मक अंश दूसरा नहीं है, जो उस समय के वैष्णवों के नये मत और उससे भी प्राचीन बुद्ध मत को मानने वाले लोगों के साम्प्रदायिक विवादों से सन्दर्भित है। कृष्ण के धर्मानुयायियों का प्रतीक उनका वाहन गरुड़ बताया गया है और उनके धूर्त प्रतिपक्षी बौद्धों को तक्षक नाग अथवा सर्प से चिह्नित किया गया है। यह नाम उन्होंने उत्तर से निकली हुई जातियों को दिया है, जो समय-समय पर भारत पर आक्रमण करती रही हैं। इन्हीं में से तकसिली लोग (Taksiles) भी थे। अलेक्जेण्डर का मित्र (जिसकी राजधानी का स्थान अब भी बाबर के संस्मरणों में सुरक्षित है) विक्रम के शत्रु तक्षक शालिवाहन के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । यादव-राजकुमार कृष्ण की कथा में (जिन्होंने स्वयं बुद्ध त्रिविक्रम के मत को छोड़ कर विष्ण त ग्रहण किया था, भले ही वे उसके
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