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परिशिष्ट कालान्तर में कई पीढ़ियों बाद सिद्धराज हुआ, जिसका नाम संसार में विदित है, जिसका शरीर विजयश्री द्वारा समाश्लिष्ट था और जिसके सत्कर्म इस पृथ्वीपटल पर व्याप्त हैं तथा जिसके कान्तियुक्त व्यक्तित्व और सौभाग्य के कारण अपरिमेय वैभव एकत्रित हो गया था।
उसके बाद कुमारपालदेव हुा । वह कैसा था? ऐसा कि जिसने अपने दुर्जय मस्तिष्क से समस्त शत्रुओं को परास्त कर दिया था, जिसके आदेशों को पृथ्वीमण्डल के सभी राजा शिरोधार्य करते थे; जिसने शाकम्भरी के स्वामी को अपने चरणों में प्रणत किया ; जिसने शैवलक' के विरुद्ध स्वयं शस्त्र-ग्रहण किया और शालिपुर नगर में भूभृतों के शिर झुका दिए ।
चित्रकूट पर्वत पर......"अर, उस नरेश्वर ने कौतुक से ही इस (लेख) को देवालय में स्थापित किया और इस पर ऊँचा कलश भी चढ़ाया। क्यों ? कि यह मूखों के हाथों की पहुंच से बाहर रहे। ____जैसे रात्रि का स्वामी (निशानाथ) नीचे सुन्दर कामिनियों के मुख देखकर अपने कलङ्क के कारण ईर्ष्या करता है उसी प्रकार यह चित्रकूट अपने शिखर पर इस प्रशस्ति को देखकर लज्जित होता है ।
संवत् १२०७ (११४१ ई०) [मास और दिन का लेख टूट गया है ]
' मूल लेख में उल्लेख नहीं है। २ यह लेख 'राजस्थान का इतिहास' भाग १ के परिशिष्ट में उद्धत है। इस लेख में कुल २८ पक्तियां हैं।
लेख का प्राशय चालुक्यनृपाल कुमारपाल द्वारा चित्रकूटगिरि अर्थात् आधुनिक चित्तौड़गढ़ की यात्रा के समय समिद्धेश्वरदेव के मन्दिर के निर्माण और उसी अवसर पर दिये हुए दान को चिरस्मृत करने का है।
यह लेख 'इण्डियन एण्टीक्वेरी' के वोल्यूम २, में पृष्ठ ५२१ पर प्रोफेसर कीलोन द्वारा प्रकाशित किया गया है । लेख का शुद्ध पाठ नीचे दिया जाता है
ॐ नमः सर्वज्ञाय । नमो सप्ताचिदग्धसंकल्पजन्मने । सर्वाय परमज्योतिर्वस्तसंकल्पजन्मने ।। मयतात् स मा श्रीमान् मगनी बनाम्बुजे। यस्य कण्ठच्छवी रेजे शंखालस्येव पल्सरी ॥ यदीयशिखरस्थितोल्लसदनल्पविष्यध्वज,
समण्डपमहो नृणामतिविदूरतः पश्यताम् । ।
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