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________________ प्रकरण - ३; सरियानों का स्वभाव और रहन-सहन हैं । हाँ, उनमें वे दुर्गुण नहीं हैं जिनके लिए इसी जाति के अत्यन्त पतित पश्चिमो लोग बदनाम हैं । संरियों में कोई परहेज नहीं है, वे कुत्ते और बिल्ली के अतिरिक्त सब चीजें खाते हैं; यह घृणा कहां से शुरू हुई अथवा यह उनके पश्चिम और दक्षिण में बसनेवाले भाईबन्धुओं में भी प्रचलित है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। ये लोग प्रायः शिकार पर ही निर्भर रहते हैं और इस कला में अत्यंत निपुण हैं; वे इसका अभ्यास नीलगाय और जंगली सूअर जैसे बड़े पशुओं से लेकर गरीब खरगोश तक सभी वनपशुओं पर करते हैं । लोमड़ियाँ, गीदड़, साँप और छोटी बड़ी छिपकलियाँ उनके अधिक स्वादिष्ट पदार्थों में हैं जो जंगल में बहुतायत से मिल जाते हैं; सारांश यह है कि मनुष्य ने जिन जानवरों को पालतू बना लिया है उनके सिवाय वे कुछ भी नहीं छोड़ते । जंगली फलों में वे तेंदुना, चिरोंजी, आँवला, इमली और कोविदार आदि के फलों को इकट्ठा कर लेते हैं जिनको या तो स्वयं काम में ले लेते हैं अथवा अनाज के बदले में बेच देते हैं । दवा के लिए वे बहुत सी जड़ें जमीन खोदकर निकालते हैं, जैसे कोळीकाँटा (Coli-cunta) जिस से मांडी या कलफ बनती है और कुश-घास (दाम) की रेशेदार जड़ें, जिस से बश बनाते हैं। ये दोनों ही वस्त्रधारियों के लिए अत्यंत आवश्यक वस्तुएँ हैं । इसी तरह वे इन हिस्सों में लकड़ियां भी काटते हैं और इस व्यवसाय में कितनी ही तरह के गोंद इकट्ठे कर लेते हैं जो दवाओं तथा अन्य उद्योगों में काम आते हैं । एक और कला है जो विशेषकर इन्हीं लोगों की, है वह है विविध वृक्षों की छालों और जड़ों को भिगोकर मुलायम करना और फिर उनसे रस्से या सूतली बनाना; इन पेड़ों में केशूला मुख्य है जिसकी दोनों किस्मों को ये लोग पहचानते हैं । एक और जड़ जिसको बखोरा ( Bukhora) कहते हैं, उससे ये रस्सियां बनाते हैं। छालों के रेशेदार हिस्से को भी जड़ों में मिलाते हैं या नहीं, यह तो मैं निश्चय रूप से नहीं कह सकता, यद्यपि मेरी टिप्पणी से यही अर्थ निकलता है, परंतु वे उस सबको (कूट पीट कर) बहुत नरम और लसदार बना लेते हैं, फिर उसमें से लम्बे और बारीक तन्तु खींच कर निकालते हैं जिनको छाया में सूखा लेने के बाद कितने ही लंबे लंबे रस्से बँट लेते हैं। वे बहेड़ा और हर नामक छोटे छोटे फल भी इकट्ठे करते हैं जो शाहाबाद की पहाड़ियों में बहुत मिलते हैं और जिनको रंगरेज लोग पीला रंग बनाने के काम में लेते हैं; (इसी तरह) रीठा है जो कपड़ा सफेद करने में साबुन की एवज़ काम में आता है । हाडौती में-यह वर्णन मुख्य रूप से इसी प्रान्त की सैरिया जाति के लोगों का है-~ये लोग महा नामक फल एकत्रित करते हैं जिससे व्हिस्की से मिलती-जुलती शराब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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