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________________ पश्चिमी भारत की यात्रा ___"जिनके विस्तार पर उड़ान भरने के लिए कवित्व भी पर फड़फड़ाने की हिम्मत नहीं करता।", उन स्थानों का पर्यटन किया है, जहाँ चट्टानों से घिरे हुए अवरोधों में होकर गङ्गा और यमुना बहती हैं, बहुत समय तक नदियों के पिता 'प्राबे सिन' अथवा सिन्धु की यात्रा करने का भी विचार किया और भारत की अन्य महान् नदियों में प्रधान इस शास्त्रीय नदी के मुहाने पर घूमने की कामना भी की थी। परन्तु मेरा मुख्य उद्देश्य तो यही था; बीच-बीच में आने वाली गौण इच्छात्रों में भी मेरी असीम अभिरुचि थी। मैंने पहले, भारत के देवपर्वत प्रसिद्ध ग्रा पर जाने का विचार किया और मार्ग में ऊँचे अरावली की सबसे चौड़ी श्रेणी को, औगुणा पनरावा की स्वच्छन्द भील जातियों में होकर अथवा इस विशाल पर्वतश्रेणी के उच्चतम शिखर पर विद्यमान बनास नदी के उदगम स्थान जैसे कठिनतर प्रदेश में होकर, पार करने का निश्चय किया; फिर, इसकी उत्तरी ढाल उतर कर मारवाड़ के जङ्गल की सुन्दर 'संजाफ' बने हुए इस (अरावली) के किनारे-किनारे सिरोही को पार करके प्राबू पहँचने का विचार किया। बहुत लम्बे समय से भौगोलिक एवं राजनैतिक परि. स्थितियों के कारण समाज से विच्छिन्न आदिवासी भील जातियों को देखने की प्रबल इच्छा होते हुए भी कितने ही कारणों से मुझे दूसरा ही मार्ग ग्रहण करना पड़ा। सन् १८०८ ई० में मेरे एक दल ने इस भूभाग का पर्यटन करके इन जातियों की प्रादिम एवं स्वच्छन्द प्रवृत्तियों का मुझसे वर्णन किया था, तभी से इन लोगों से मिलने की इच्छा मेरे मन में जागृत हुई थी। इसी अगम्य प्रदेश में किसी वनपुत्र को विधवा द्वारा अपने स्वर्गीय पति के तरकश में से निकाल कर दिए हुए एक तीर ने मेरे सन्देशवाहक (दूत) के लिए यहाँ की अन्यथा दुर्गम घाटियों में अभयपत्र (Passport) का काम किया था। अस्तु-इसीलिए उन टेढ़ेमेढ़े तङ्ग रास्तों को, जिनमें राणागों ने मुगल आक्रामकों को चक्कर में डाल दिया था, पार कर बनास के उद्गम स्थान और सादड़ी दरें में से मैदान में निकल कर राईपूर (राणपुर?) के प्रसिद्ध जैन मन्दिर को मैं देखना चाहता था। साथ ही, मैंने ऐसे आदमियों के एक दल को, जिनकी सूचना और चतुराई पर मुझे विश्वास था, इसलिए आगे रवाना कर दिया था कि वे किसी दूसरे मार्ग का अन्वेषण करें और आबू पाकर मेरे साथ हो जावें । यही सब उद्देश्य, जिन्होंने मेरे नित्य के विचारों में घर कर लिया था, अब मेरी पहंच में आ चुके थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि सबसे पहले १८०६ ई० में मेरे नक्शे में आबू का 'रिक्तस्थान' बना था। उस समय में बनास नदी के निकास की तलाश में था। इस नदी को उस वर्ष हमने सिन्धिया की छावनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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