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________________ १८ ] पश्चिमी भारत को यात्रा संरक्षण और प्रान्तरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई थी जिसके बदले में उन्होंने हमारा आधिपत्य एवं हमें वार्षिक राजस्व का एक अंश देना स्वीकार किया था। इन सन्धियों पर दिसम्बर, १८१७ व जनवरी, १८१८ में हस्ताक्षर हुए और फर्वरी मास में कप्तान टॉड को (जो उस समय ग्वालियर में रेजीडेण्ट के राजनीतिक सहायक थे) गवर्नर-जनरल ने पश्चिमी राजपूत रियासतों के लिए अपना राजनीतिक-प्रतिनिधि (Political Agent) नियुक्त किया। (जो उसकी सेवाओं को सम्मानित करने का बहुत अच्छा प्रकार था) इस विपल अधिकार से मण्डित हो कर टॉड ने अपने-आपको, इधर-उधर की पहाड़ियों में बचे-खुचे विदेशी आक्रामकों द्वारा की गई हानि को पूरा करने, अान्तरिक आपसी झगड़ों से उत्पन्न हुए गहरे घावों का उपशम करने और राजपूताना की रियासतों के बिगड़े हुए सामाजिक ढाँचे का पुननिर्माण करने के परिश्रमपूर्ण और कठिनतम कार्य में संलग्न कर दिया। यह महान् दायित्त्व किसी भी ऐसे मनुष्य को कुण्ठित कर सकता था, जो राजपूत-राजनीति की विषम उलझनों से परिचित न हो, जिसने यहां की संस्थाओं, मनुष्यों के आचरण और उनकी पसंद-नापसंद का अध्ययन न किया हो, जो उनके लोक-साहित्य' में पारंगत न हो, जो किसी भी जटिल समस्या को लेकर उन्हीं की बोली में उन्हीं की मान्यताओं और सिद्धान्तों को उपस्थित करता हुआ वाद-विवाद न कर सकता हो और, सब से बढ़ कर, जिसके स्वभाव में दृढ़ता, उत्साह में अदम्यता और विचारों में ऋजुता एवं निष्पक्षता न हो। ___ उसके नवीन कार्यक्षेत्र को ओर अग्रसर होते हुए जहाजपुर से उदयपुर तक १४० मील की यात्रा में उसे केवल दो ही थोड़ी-सी आबादी वाले ऐसे गांव मिले जो राणा का आधिपत्य स्वीकार करते थे; बाकी सब उजाड़ पड़ा था; ' राजपूत कवि चांद या चन्द के अनुवाद से सम्बद्ध एक ह. लि. टिप्पणी में क. टॉड कहते हैं "मैंने इन लोगों के साथ हिलमिल कर इनकी भावनाओं को ग्रहण किया; यद्यपि उत्तमता में ये हमारी श्रेणी तक नहीं पहुंच सकते, परन्तु यदि यह ज्ञात कर लिया जाय कि प्रत्याचार और दमन के कारण विकृत होने से पूर्व ये कैसे रहे होंगे तो ग्राह्य प्रतीत होंगे। जब में यह कहता हूँ कि छः वर्ष तक में इनके बीच में और इससे दोगुने समय तक इनके सानिध्य में रहा तो यह प्राश्चर्य होता है कि मैं बहुत कम जान पाया हूँ। में इन काव्यों के विषय में किसी गम्भीर ज्ञान का स्वामी होने का दावा नहीं करता; परन्तु, एक लाभ हुमा, जो गहन अध्ययन से भी प्राप्त न होता-वह है, इस भाषा में बातचीत करने की क्षमता, योग्यतापूर्वक तो नहीं, परन्तु धड़ाधड़ ( मैं बोल सकता हूँ); रूपक और अलंकार तो यहां के साधारण से साधारण संलाप में भरे पड़े हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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