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पश्चिमी भारत की यात्रा
से यहाँ तक का प्रदेश बिलकुल सपाट है; नगर के पास की ऊँची भूमि बीच में प्राकर उसके दृश्य को ढक लेती है और जब आप इसके समीप आ जाते हैं तो प्राम्रकुंजों में से निकलती हुई यहाँ की ऊँची श्रीर गुम्बददार छतरियाँ दृष्टिगत होने लगती हैं । नगर में घुसते ही हमें कोई भी चीज विशेष ध्यान देने योग्य नहीं दिखाई दी, केवल घनी व्यापारी बाजारों में इधर-उधर घूम रहे थे, जिनसे, कवि चन्द के कथनानुसार 'नगरों को सौन्दर्य (वैभव ) की प्राप्ति होती है'; और इस विचार से भावनगर निस्सन्देह सुन्दर था ।
इस नगर की स्थापना चार पीढ़ी पूर्व गोगा के सरदार रावल भावसिंह ने की थी, जिसके नाम पर ही इसका नाम भावनगर पड़ा है। वर्तमान् ठाकुर का नाम विजयसिंह है, वह बड़ी सहृदयता से हमें गोगो से आधे रास्ते पर अपनी राजधानी में लिवा ले जाने के लिए सामने आया । राजपूत में मुझे सदैव ही मित्र के दर्शन होते हैं और हिन्दूपति के दरबार से, जिन्होंने इस ठाकुर के पूर्वजों का मान बढ़ाया था (यदि पदवियों से इनका मान बढ़ता हो), श्राने के कारण यहाँ तो मेरे लिए विशेष सौहार्द प्राप्त करना निश्चित ही था । साथ ही, मेरे मित्र मिस्टर विलियम्स के समागम का भी श्रानन्द मुझे मिल गया था । घोड़ों पर बैठ कर हम कुछ मील साथ-साथ प्राए; इस बीच में श्रापस की बातचीत से यह यात्रा उत्साहपूर्ण रही और उनकी जहाजों एवं सेनाओं के अभिवादन के बीच राजधानी में सोल्लास प्रवेश करने से पहले ही हम 'खेरथल' से उनके निष्कासन से लेकर वर्त्तमान् तक उनके वंश और इतिहास की रूपरेखा, उनकी नीति, प्राय-स्रोत, दुख-दर्द, मित्रताएं और लड़ाई-झगड़ों के विषय में बातें कर चुके थे । राजपूतों से मेरो घनिष्टता होने के कारण उनके पूर्वजों के रिवाज के एक विशेष प्रतिक्रमण की ओर मेरा ध्यान गए बिना नहीं रहा और अन्य महत्त्वपूर्ण बातों के समान मैंने इस बात से भी यही निष्कर्ष निकाला कि 'मीडीज्' (Medes ) ' के समान राजपूतों के नियम अपरिवर्तनीय नहीं हैं । ठाकुर
जब श्रार्य-भाषा-भाषी जनों का मुख्य समूह तुकिस्तान और ईरान की ओर भाया तो बहुत से लोग तो हिमालय की ओर बढ़ गए और कुछ छोटे-मोटे समूह पठार के पश्चिमी भागों मैं बस गए। यह घटना ई० पू० २००० की है। कितनी ही शताब्दियों तक ये लोग छोटे-छोटे राज्य बना कर रहते रहे। अन्त में, दो जातियों ने परम्परा भंग कर के अन्य सभी निम्न समूहों का नेतृत्व ग्रहण किया—ये लोग मीडीज़ और पर्सियन कहलाए । मीडोज़ का अधिकार पश्चिमी ईरान के उत्तरी एवं मध्य भाग पर था । ई. पू. नवीं शताब्दी में इन लोगों का असीरिया (Assyria) से संघर्ष हुआ परन्तु छिन्न-भिन्न और बिखरे हुए कबीलों में रहने के कारण इन में अनुशासन और संगठन की कमी थी, इसलिए
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