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पश्चिमी भारत की यात्रा देवकाचार्य' (दिवाकर) संवत् ४०० . (३४४ ई.) में हुए थे। तदनुसार इस मत के श्रीपूज्य या गुरु बिना वस्त्र के रहते हैं और अपनी कमर भी नहीं ढंकते; केवल जाड़ों में मौसम के प्रभाव से बचने के लिए एक लिहाफ (रजाई) ऊपर डाल लेते हैं; परन्तु, अब बहुत थोड़े (आजकल एक गिरनार में हैं) ऐसे रह गये हैं, जिनको तपस्या और सांसारिक भावनाओं के त्याग-स्वरूप ऐसी महती प्रतिष्ठा प्राप्त है। ग्वालियर की गुफाओं में जो विशाल मूर्तियाँ हैं और जिनमें से कुछ तो पचास-पचास फीट ऊँची हैं वे और भारतवर्ष भर में इसी प्रकार की बनी हुई अन्य प्रतिमाएं, सब इसी मत से सम्बद्ध हैं । वर्तमान गुरु का मुख्य स्थान सूरत में है; उनका नाम विद्याभूषण है और इन विद्या [विज्ञान के भूषण [अलङ्कार के ज्ञान की बहुत प्रसिद्धि है। उनके स्वयं के पास तो बहुत थोड़े से शिष्य रहते हैं, परन्तु बहुत से भारत भर में इधर-उधर फैले हुए हैं। इस मत के मानने वाले या अनुयायी मुख्यतः बनिये अथवा व्यापारी वर्ग के लोग हैं और उनमें भी खास कर हुम्बड़ हैं (Hoombibanas), जो चौरासी कुलों में से हैं। इन लोगों का अनुभव है कि ऐसे अनुयायियों की संख्या चालीस हजार है और उनमें से अधिकांश जयपुर में रहते हैं जहाँ बहुत से दिगम्बरों के मन्दिर हैं। परन्तु यह पन्थ भी 'काष्ठासंघी'
और 'मुर-मयूर-सिंघी' नामक दो शाखाओं में विभक्त है, प्रथम तो आद्य संघ का नाम मात्र है और दूसरे का यह नाम मोरपंख लिये चलने के कारण पड़ा है।
१ वास्तव में, सिद्धसेन दिवाकर जैन-दर्शन के आद्य प्राचार्य थे और दिगम्बर एवं श्वेताम्बर
दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से पूज्य माने जाते हैं । परम्परागत-मान्यतानुसार ये विक्रम के समकालीन थे। • मैंने ऐसे एक प्राणी को देखा है जिसके पास एक अंजीर का पत्ता भी नहीं था और उसको
डालपुर (Dhalpoor) के न्यायालय में सम्मानित स्थान प्रदान किया गया था। ३ जैनों के ये संघ मुनियों के आचरण एवं उनकी मान्यताओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन्हीं
आधारों पर समय-समय पर माथुर-संघ, द्राविड-संघ, मूल-संघ, यापिनी-संघ आदि अनेक संघों की रचना हई। ये संघ केवल शास्त्रों तक ही सीमित रहे । अब तो इनमें से बहुत
से लुप्त हो चुके हैं। ४ वास्तव में काष्ठ-प्रतिमा का पूजन करने के कारण इस संघ का यह नाम रखा गया था। कहते हैं कि नन्दीग्रामवासी विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने आजीवन सन्यासव्रत लिया था । परन्तु, कुछ दिनों बाद क्षुधादिक से पीड़ित होकर उसने आहार कर लिया एवं व्रतभंग किया। कुछ महान् प्राचार्यों ने उसे पुनः दीक्षा लेने की व्यवस्था बतायी थी परन्तु विद्यामद में चर होकर उसने इस विधान को नहीं माना, नए शास्त्रों की रचना कर डाली और काष्ठ-प्रतिमा का निर्माण करा कर पूजन करने लगा। और भी बहुत से लोग उसके अनुयायी हो गए। यह संघ काष्ठासंघ कहलाया। इसकी स्थापना वि० सं० ७६३ में हुई थी।- बुद्धिविलास (वखतरामकृत) रा० प्रा० वि० प्र० १९६४ पृ. ६९-७०
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