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पश्चिमी भारत की यात्रा इन पूर्वकालीन घटनाओं की ओर कुछ मुसलमान लेखकों का ध्यान गया तो अवश्य था, परन्तु उनको बौद्धिक अस्पष्टता के कारण विषय कुछ धुधलासा ही बना रहा । इन गुत्थियों को सुलझाने में असमर्थ अबुल फजल ने कन्नौज के राज्य का विस्तार समुद्रतट-पर्यन्त बताया है। मसूदी' ने इन प्रदेशों का विवरण दसवीं शताब्दी में लिखा है; वह 'बोरोह, (Bouroh)' राज्य की बात करता है और उसी को कन्नौज का राज्य कहता है । इस ग़लती का कारण यह समझ में आता है कि वह कल्याण के राजा वीर राय' के नाम को नहीं समझ सका, जो सोरों से कन्नौज के राज्य में चला गया था । ऐसा ज्ञात होता है कि पहला राज्य दूसरे से बड़ा होने का दावा करता था, जो सम्भवत: बाद में राजधानी बन गया था। बात यह है कि फ़ारसी अथवा अरबी लिपि में सोरों के 'शीन' के नीचे एक नुकता लगाया कि वह 'बोरो' हो जाता है। अरब यात्रियों का कहना है कि जब वे भारत में पाए थे तब यहाँ पर चार बड़े साम्राज्य थे। इनमें से बल्हरों को चौथे नम्बर पर बतलाते हैं और उनकी शक्ति का तो वे निस्सन्देह इतना बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करते हैं कि उनकी सेना की संख्या पांच लाख तक पहुँचा दी है। अबुल फजल ने तत्कालीन कन्नौज की शक्ति का जो विवरण दिया है वह भी सत्य से इतना ही परे है क्योंकि गंगा से समुद्र-तट तक विस्तार-वर्णन के स्थान पर उसके विवरण में अजमेर, चित्तौड़ और धार जैसे शक्तिशाली राज्य कन्नौज और अणहिलवाड़ा के बीच में आ पड़ते हैं, जिनके अन्तर्जातीय युद्धों एवं विवाहों के उल्लेख मिलते हैं। परन्तु, अब हम चालुक्यों के नवीन राजवंश का विवरण आगे चलाते हैं ।
' इसका नाम अबुल हसन अली मसऊदी (३०३ हिजरी) उच्चकोटि के इतिहास-लेखक,
भूगोल लेखक और यात्री के रूप में प्रसिद्ध है । उसका जन्म-स्थान बगदाद था । इसको दो पुस्तकें मिलती हैं, जिनमें इतिहास की बहुत सी बातें लिखी हुई हैं और जिनके नाम क्रमश: "उल तम्बीह वल-अशराफ" एवं "मरुजुज-जहब व मपादनुल जोहर" हैं। दूसरी पुस्तक की भूमिका में सारे संसार की जातियों का उल्लेख हुआ है। उन्हीं में भारत भी है । मसऊदी के कथनानुसार (१) भारत में बहुत सी बोलियां बोली जाती हैं (२) कन्धार रहबूतों (राजपूतों) का देश है, आदि । मसऊदी ने "मुरुजुज जहब" सन् ३३२ हि० में अपनी यात्रा समाप्त करने के उपरांत लिखी थो। यह पुस्तक पेरिस से फ्रान्सीसी अनुवाद सहित नौ खंडों में प्रकाशित हुई थी और मिस्र में कई बार प्रकाशित हो चुकी है।
-अरब और भारत के संबंध-अनु० रामचंद्र वर्मा, १६३०; पृ० ३२-३३
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