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प्रकरण - ५; जैन यात्री को सद्भावना
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एक नर-भक्षक की गुफा का जैन-मन्दिर के अहाते में नहीं, तो उसके बिलकुल पास ही मिलना बड़ी विचित्र बात थी-उन जैनों के मन्दिर के पास जिनका पहला सिद्धान्त यह है कि मनुष्य की ही नहीं छोटे से छोटे प्राणी की भी 'हिंसा मत करो'; यह हिन्दू-मान्यताओं के इतिहास में विरोधाभास का एक और उदाहरण है जिसमें बड़ी से बड़ी विपरीतताओं का समावेश पाया जाता है। कट्टरपंथी लोग, चाहे वे शव हों या वैष्णव, अपने-अपने मतों को इतना दृढ़ समझे हुए प्रतीत होते हैं कि अन्य पन्थों के सम्पर्क से उन्हें कोई भय नहीं होता; यहाँ तक कि अद्वैतवादी जन लोग भी, जो अपने को प्रकृति के उपासक मानते हैं, बुद्ध, अन्नपूर्णा अथवा सृष्टि के संहारकर्ता [शिव ? ] को मूर्तियों को आदरपूर्वक नमस्कार करने से इनकार नहीं करते । मतों और पन्थों में शहीद नहीं होते; भक्तों को, जिन विश्वासों (सिद्धान्तों) में उनका जन्म हया है उनसे चिपके रखने के लिए सन्तों के शवों की आवश्यकता नहीं पड़ती; और अज्ञानी अन्धविश्वासी तथा कायर एवं दयालु लोग नीचतम और घृणित अघोरी को भी भोजन देने में संकोच नहीं करते। इस भयङ्कर विश्वदेवतावाद में समाजविरोधी कार्यों के लिए कोई भी उत्तरदायी नहीं होता।
अोरिया (Oreab) और अचलेश्वर के देवालय के बीच में हमें छोटे छोटे मन्दिरों का एक समूह मिला जिनमें सबसे प्रमुख नन्दीश्वर का मन्दिर था। इससे एक तथ्य की पुष्टि हुई, जो अभी तक सिद्ध नहीं हुआ था अर्थात् इन लोगों के स्थापत्य सम्बन्धी नियम अपरिवर्तनीय होते हैं और साधारणतया आकार-प्रकार के विषय में प्रत्येक देवता के मन्दिर की शैली पृथक् होती है। यह मन्दिर चम्बल के प्रपातों पर बने हुए गङ्गा-भ्यो (Ganga Bheo) और
मार्को पोलो ने ऐसे ही जादूगरों के विषय में कहा है जो हमारे इन अघोरियों से बहुत मिलते हैं। "ज्योतिषी, जो जादू को पैशाची कला का अभ्यास करते हैं, काश्मीर और तिब्बत के निवासी हैं। वे गन्दे और भद्दे रूप में सामने प्राते हैं, उनके चेहरे बिना धुले और बाल बिना कंघी किए हुए तथा मैले रहते हैं। इसके अतिरिक्त वे इस भयंकर और पाशविक प्रथा का पालन करते है-जब कभी किसी अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया जाता है तो वे उसके शरीर को ले जाते हैं और प्राग में भून कर खा जाते हैं।"
-Marsden's 'Marco Polo,' p. 252. हैरोडॉटस् के ईथोपिअन ट्राग्लोडाइटीज (Troglodytes) भी इससे बहुत मिलते-जुलते हैं "छिपकलियां, सांप और अन्य जंगली जानवर उनका भोजन हैं; चमगादड़ों की सी चोख ही उनकी भाषा है।"--Melp; p. 341. देखो 'राजस्थान का इतिहास' जिल्द २, पृ. ७१६.
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