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________________ २२२ ] पश्चिमी भारत की यात्रा गैला कर्णदेव संवत् १३५० (१२६४ ई०) में राजा हुआ। राजपूत राज्यों के भाग्य में परिवर्तन का यह एक ऐसा विशेष समय पाया था कि उनमें से प्रत्येक के लिए अपनी अतिशय शक्ति का उपयोग करने के निमित्त सुलेमान की सी बुद्धिमानी को भी आवश्यकता थी। ऐसे ही समय में अणहिलवाड़ा की गद्दी पर एक पागल अथवा मूर्ख मनुष्य का अधिकार हुआ। गैला का अर्थ यही है, गोहिल नहीं, जैसा कि अबुलफजल ने लगाया है, क्योंकि 'बंसराज' की गद्दी पर इस वंश का कोई भी राजा नहीं बैठा । क्रूर अलाउद्दीन, जिसके लिए हिन्दुओं के पास 'खूनी' अथवा 'लोहू का प्यासा' के अतिरिक्त और कोई विशेषण न था और जो भारत के प्रत्येक राजपूत वंश के लिए विनाशकारी दत्य के समान था, इसी समय में अणहिलवाड़ा पाया था और अन्य सभी स्थानों के समान 'देखते देखते उसको भी फतह कर लिया था।' अणहिलवाड़ा की नींव पड़ने के बाद पांच सौ बावन वर्षों से टिकी हुई बलहरों की सत्ता गैला कर्ण के साथ समाप्त हो गई। राजधानी में और उसके मा पास अन्तिम बागेला वंश के छोटे-छोटे सरदार अपनी अपनी जागीरों पर बने रहे, परंतु उन पर प्राधीनता की मोहर लग चुकी थी; कालीकोट की गरबीली दीवारें भूमिसात् कर दी गई थीं। • बल्हरों की महानता के बहुत थोड़े अवशेष देखने को मिलते हैं। प्रथम चावड़ा वंश के कुछ ठिकाने गुजरात में हैं, जिनमें सब से बड़े की प्रामदनी एक लाख रुपया प्रांकी जाती है। उसी के बराबर की दूसरी बड़ी जागीर चालीस हजार रुपये मामदनी की बताई जाती है । इन सभी के साथ मेवाड़ के राणानों का प्राचीनकाल से वैवाहिक सम्बन्ध चला पाता है क्योंकि वे अपने पड़ोस के अधिक समृद्ध घरानों की अपेक्षा इन लोगों में चावड़ों का विशुद्ध रक्त होना मानते हैं। मेवाड़ का वर्तमान राणा और उसकी प्रभागिनी बहिन कृष्णाकुमारी की माता उस दूसरे ठिकाने की ही लड़की थी। रीवा का राजा, जिप्तका देश बघेलखण्ड कहलाता है, इस वंश के मूलपुरुष बाघजी की बत्तीसवीं पीढ़ी में है। दूसरे अर्थात् सोलंकी वंश के लोग अभी तक अपनी ही भूमि पर रह रहे हैं और उनमें मुख्य लूणावाड़ा का राजा है । पीथापुर (Pcetapur) और थेराद (Therad) वाले दोनों बाघेला हैं । टोंक-टोडा के सोलंको भी अपने समय में प्रसिद्ध थे। 'इतिहास' में परिणत उनका बूंदी का झगड़ा पढ़िए; वे भोला भीम और पृथ्वीराज के युद्ध में कारणीभूत अणहिलवाड़ा के बाहरबाट हुए भाइयों में से एक के वंशज बताए जाते हैं। उन्हें अजमेर के णस रामसर का पट्टा प्राप्त हुआ और वीरदेव का विवाह पृथ्वीराज को बहिन के साथ हुआ था। संवत् १२८० में इस सम्बन्ध से प्रसूत तीसरे वंशज गोविन्दराय ने गोलवाल (Geolwal) राजपूतों को टोडा से बाहर निकाल दिया, जिसका प्राचीन नाम तक्षशिला (Taksilla) है। जब १८०६ ई. में मैं उधर से निकला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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