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________________ ५०२] पश्चिमी भारत की यात्रा प्रधान सेनापति (Commander-in-Chief) जनरल सर चार्ल्स कॉलविल (General Sir Charles Colville) से यात्रा के विषय में मेरी बातचीत हुई; आबू की रमणीयता, पालीताना के खण्डहर, सोमनाथ, अणहिलवाड़ा और चन्द्रावती आदि, सभी पर वार्तालाप हुआ; उनकी सूचनानुसार जब कोचीन में जहाज को देर हुई तो मैंने अपनी यात्रा के मार्ग की एक विस्तृत टिप्पणी तैयार करके सम्बद्ध विषयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हुए उनके पास भेज दी। इसको मार्गदर्शिका मानते हुए 'हिज एक्सलैंसी' ने शीघ्र ही उन मुख्य-मुख्य स्थानों को यात्रा की जिनमें से बहुतों का केवल मुझे ही पता था। मेरे लिए, वास्तु-विज्ञान के लिए और पुरावस्तु प्रेमियों के लिए प्रसन्नता का विषय यह है कि प्रधान सेनापति के सहायक वर्ग में कर्नल हण्टर ब्लेयर नियुक्त थे और श्रीमती हण्टर ब्लेयर की उत्साहपूर्ण कला-प्रियता एवं उनके उत्कृष्ट पेंसिल-चमकार के प्रति समस्त संसार 'हिन्दू-शिल्पी' की सर्वोत्तम कला-कृतियों की उन अनुकृतियों के लिए आभारी है, जिनसे उन सब का उद्धार उस अंधकार से हो गया है जिसमें वे युगों से पड़े हुए थे और तुरन्त बाद में होने वाले विनाश से भी उनका बचाव हो ही गया है । परन्तु, अब हमें पुनः 'युद्ध के घोड़े पर (Cheval da Gataille) सवार नहीं होना है; 'पाथेलो' की प्रवृत्तियाँ समाप्त हुई, और अब से मुझे अतीत की बातों को सपनों की तरह देखना चाहिये जो एकाकी वर्तमान जीवन का यथार्थ से योग कर देती हैं। यहाँ मेरी कहानी समाप्त होती है अथवा हिन्दी पत्र-लेखक के शब्दों में उपसंहार करूं तो 'किं विशेषण ?' सिवाय इसके कि जैसे-जैसे हम समुद्र में यात्रा करते रहे, मेरी दृष्टि स्थल की ओर ही लगी रही, मैं भविष्य की कल्पना-- 'मेरे राजपूतों' में वापस लौटने और उनके कल्याणविषयक अनेक योजनाएं बनाने, में डूबा रहा; अन्त में, जब हम भारत के अन्तिम छोर (भू-नासिका) पर पहुँच कर मनार की खाड़ी पार कर रहे थे तो ध्रुवतारा लहरों में निमग्न हो गया-उस समय में उससे इस तरह विदा हा मानों वह मुझे उस भूमि से सम्बद्ध करने वाली अन्तिम ग्रन्थि हो, जहाँ पर मैंने अपने जीवन का सर्वोत्तम समय बिताया था और जहां मैं हजारों लोगों की भलाई का निमित्त बना था। परन्तु, मेरे सभी पाठक ज्योतिषी नहीं हैं इसलिए में इस विशिष्ट नक्षत्र के साथ अपने लगाव के विषय में यहाँ कुछ विवरण दूंगा क्योंकि पूर्व तथा पश्चिम दोनों ही जगह के कवियों के लिए यह तारा स्थिरता अथवा ध्रवता का प्रतीक रहा है । उदयपुर में मेरे घूमने की मुख्य जगह मेरी पोळ या दरवाजे की छत थी जहाँ बैठ कर में प्राय: भोजन करता था और वहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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