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पश्चिमी भारत की यात्रा रतें खड़ी हुई और इन जैन-भक्तों के लिए तो, जिन्होंने भाट के शब्दों में 'अपने नश्वर धन से अमर कीति प्राप्त कर ली थी', यह और भी प्रसन्नता की बात थी क्योंकि इन मन्दिरों का ढाँचा मात्र ही खड़ा हो पाया था कि पश्चिमी भारत की राजधानी नष्ट कर दी गई, यहाँ के व्यापारियों को बाहर निकाल दिया गया और उनकी सम्पत्ति उत्तरदेशीय आक्रमणकारी के हस्तगत हो गई। निर्माण से पूर्व यह स्थान कट्टर शवों और वैष्णवों के अधिकार में था और तत्तद् धर्मावलम्बो अपने किसी भी विरोधी मतानुयायी जनों का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकते थे; परन्तु 'नहरवाला' के साहुओं ने आबू के धरातल पर किसी अन्य स्थल की अपेक्षा इसी स्थान को अधिक उपयुक्त समझा और सार्वभौम राजा पर सुवर्ण का प्रभाव डालने का निश्चय किया अथवा, जैसा कि वे लाक्षणिक रूप में कहा करते हैं , 'उनके धर्म की विजय के लिए स्वयं लक्ष्मी ने योजना में योगदान किया।' उत्कोच की रकम बहुत भारी थी। उन्होंने अपनी आवश्यक भूमि को चाँदी के सिक्कों से पाट देना स्वीकार किया और यह ऐसा प्रलोभन था कि, बालशिव
और विष्णु के आराधकों के अभिशाप को अनसुना करके परमार राजा का मन विचलित हुए बिना न रह सका और उसने जैन साहकारों से लाखों रुपये ले लिए । (तत्कालीन) राजा का नाम तो प्रकट नहीं किया गया है परन्तु मन्दिरों की निर्माण-तिथि से यही पता चलता है कि यह वही देवद्रोही धारावर्ष था जिसने शक्ति के 'खार' को जलाप्लावित करने का प्रयत्न किया था।' साहूकार भी लक्ष्मी के प्रति अकृतज्ञ नहीं हुए और उन्होंने दरवाजे में दाहिने हाथ की ओर ताक में उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर दी।
वृषभदेव का मन्दिर एक चौकोर चौक के बीच में अकेला स्थित है; चौक की लम्बाई पूर्व से पश्चिम एक सौ अस्सी फीट और चौड़ाई एक सौ फीट है। अन्दर की तरफ किनारे-किनारे कोठरियां बनी हुई हैं; लम्बाई की ओर उन्नीसउन्नीस और चौड़ाई की तरफ दस-दस कोठरियां हैं। प्रत्येक कोठरी को लम्बाईचौड़ाई बराबर-बराबर है । कोठरियों के सामने चारों तरफ एक चबूतरे पर दोहरा खम्भों वाली रविश बनो हुई है जो चौक की सतह से चार सीढ़ी जितनी ऊँची है; इनके बीच के खांचे भो इतने ही चौड़े हैं। इनके चार खम्भों के अतिरिक्त इनके व कोठरियों की बीच की दीवारों के अनुरूप ही दो-दो खम्भे और
१ विमलशाह गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी का मंत्री था। उसीने यह मन्दिर वि० सं०
१०८८ (१०३१ ई०) में बनवाया था। उसने यह भूमि तत्कालीन प्राबू के परर राजा घंधुक से ली थी। -सिरोही राज्य का इतिहास, पृ० ६१।
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