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________________ ३४ ] पश्चिमी भारत की यात्रा :: अपने ही प्रयोग में लाने की छूट नहीं है क्योंकि इन पर वन में रहने वाले अन्य प्राणी रींछों और बन्दरों आदि को भी वैसे ही समान एवं स्वतन्त्र अधिकार प्राप्त हैं । तो अब में अपनी कहानी पर आता हूँ। "जायो" एक भील पिता ने अपने जामाता से कहा, "ये सामने के पहाड़ मैं अपनी इस पुत्री के 'डायजे ' (दहेज) में देता हूँ, अब से मैं इसकी हद में खरगोश या लोमड़ी नहीं पकडूंगा, फल नहीं तोडूंगा, कन्द नहीं उखाडूंगा और न इंधन के लिए शाखाएँ या पत्ते ही लूंगा | ये सब तुम्हारे हैं ।" परन्तु, रींछ इतनी जल्दी से अपना हिस्सा छोड़ने के लिए तैयार न था; वह अपने प्यारे महुवा वृक्ष पर अधिकार बनाए रखने के लिए लड़ पड़ा। एक भील युवक उस वृक्ष के नीचे सो गया, उसकी बग़ल में एक टोकरा उसी वृक्ष के फलों से भरा पड़ा था, जो उसने या तो अपने कुटुम्ब में भोजन के बाद फलाहार के लिए तोड़े थे अथवा उनका 'अर्क' (पूर्वीय व्हिस्की) निकालने के लिए इकट्ठे किए थे। उसी समय चक्कर लगाता हुआ एक रींछ. उधर आया और उसने उस भील को गहरी नींद में से बड़ी बुरी तरह जगाया । भालू लगभग उसको खा ही जाने वाला था कि लहूलुहान होकर भी भील उसकी पकड़ से बच निकला। वन की राज्य-व्यवस्था में इस गड़बड़ी को भील पिता सहन न कर सका । वह अपना धनुष-बाण लेकर अपमान का बदला लेने दौड़ पड़ा। आक्रमण के स्थान पर ही उसने भोजन करते हुए रींछ को जा पकड़ा, मार डाला और उसका चमड़ा ले जा कर एक पड़ौसी सरदार को भेंट कर दिया, जिसका वह मातहत था । उसने अपनी कहानी का उपसंहार इन शब्दों में किया .. यह उसी ज़ालिम की खाल है; यह बड़ी मुश्किल है कि वन में रहने वाले भाई-भाई मित्रता के व्यवहार से नहीं रह सकते, लेकिन लड़ाई इसी ने शुरू की थी ।" " यदि, जैसा कि सुप्रसिद्ध गॉग्युएट ( Goguet) ने कहा है (Vol. i p. 78), 'मनुष्यों के साधारण भोजन और उनके द्वारा देवताओं को चढ़ाई हुई बलि में सदा से ही एकरूपता रहती आई है क्योंकि वे हमेशा उन्हीं वस्तुनों का एक अंश देव - ताओ को चढ़ाते हैं जिनका वे प्रधानतया अपनी जीवन-रक्षा के लिए उपयोग करते हैं; जैसे, पहले जमाने में झाड़ियाँ, फल और पौधे चढ़ाते थे, फिर जब जानवर उनका साधारण भोजन बन गए तो उनको चढ़ाने लगे, तो इसका सीधा अर्थ यही होगा कि मनुष्य-बलि और नरभक्षण भी साथ साथ चलते थे; परन्तु, यद्यपि ऐसे लेखबद्ध प्रमाण मौजूद हैं कि हिन्दू तथा प्राचीन ब्रिटेन जाति के लोग अनिष्टकारक देवताओं को नर बलि चढ़ाते थे फिर भी यह विश्वास करने के लिए प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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