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पश्चिमी भारत की यात्रा
. चली आ रही थी। इस प्रथा के चालू होने की यही व्याख्या सच है या नहीं, अब इसकी जांच करना बेकार है; परन्तु, ऐसे प्रमाणों के विरुद्ध भी मेरा मत तो यही है, जैसा कि मैंने अन्यत्र व्यक्त किया है, कि यहाँ बताए हुए मूल कारणों से कई पीढ़ियों पहले सुम्माओं के इसलाम में परिवर्तन से ही, जिसके फलस्वरूप राजपूतों में उनका वैवाहिक सम्बन्ध बन्द हो गया था, इस प्रथा का जन्म हुआ था; और क्योंकि यह कारण सती के शाप वाली बात से सम्बद्ध हो रहा है इससे इतना ही माना जा सकता है कि यह बर्बरता को हल्का करने का प्रयत्न मात्र है। मुझे विश्वस्त सूत्रों ने बताया कि इसमें कमी या शिथिलता लाने के कोई प्रयत्न नहीं किए गये प्रत्युत इसको चालू रखने के प्रयत्नों को प्रच्छन्न रखने के लिए और भी अधिक श्रम किया गया। परन्तु, यह भी विश्वास दिलाया गया,
और बात भी ठीक है, कि लड़कियों की तरह ऐसे लड़कों की संख्या भी कम नहीं है जिन को पैदा होते ही थोड़ा सा दूध' (अफीम मिला हुआ) दिए जाने के दुर्भाग्य का परिणाम न भुगतना पड़ा हो । अभी तुरन्त ही हमें इस बात को सचाई का पता चल जायगा जब हम कच्छ और मारवाड़ में एक ही समय में बस जाने वाले जाड़ेचों और राठौड़ों की जन-संख्या की तुलना करेंगे; जनगणना करने पर जाड़ेचों में सब मिला कर बारह हज़ार आदमी ऐसे पाए गए जो शस्त्रधारण करने योग्य हैं जब कि राठौड़, एक शताब्दी पहले भी अत्याचारी औरंगजेब से अपने राजा की रक्षा करने के लिए पचास हजार आदमी ले आए थे और आज भी ला सकते हैं-और वे 'सब एक बाप के बेटे' हैं, यदि उन्हीं के शब्दों में कहें। फिर, एकान्त और असम्बद्ध रहने के कारण जाड़ेचा युद्ध की हानियों से भी बचे रहे जिनकी वजह से राठौड़ों की जनसंख्या बराबर क्षीण होती रही थी । जाड़ेचों का कहना है, और शायद ठीक भी हो, कि भूचाल और अकाल ने उनकी आबादी को नहीं बढ़ने दिया।
हाल के बाद प्रथम जाड़ेचा लोखा गद्दी पर बैठा जिसके कोई सन्तान नहीं हई । लाखा और लखयार हाल के छोटे भाई वीर के पुत्र थे और इनमें से ही किसी एक की महामारी से रक्षा होने के कारण इस जाति का यह नाम पड़ा था। इसी प्रकार यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि वह लड़की भी, हाल को नहीं वेर की ही थी, जिसने शाप दिया था और जिसका पहला प्रभाव लाखा के ही वंश पर पड़ा था। इतिहास में लिखा है कि लाखा के वंश में सात लड़कियाँ हुई जो सर्वप्रथम इस अभिशाप का शिकार बनीं; परन्तु, उसके कुलगुरु एक सारस्वत ब्राह्मण ने इस कुकृत्य को इतना गर्हित समझा कि उसने इसे सम्पन्न कराने से इनकार ही नहीं किया वरन् उस वंश की गुरु-पदवी धारण करने की भी अनिच्छा
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