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प्रकरण - ६; देलवाड़ा के मन्दिरों पर विचार [ ११३ १०८,००० पाउण्ड के बराबर है। यह एक विशाल पीतल की पृष्ठभूमि पर ऊँची उभरी हुई है और प्राकृति में धर्मोपदेशक के समान लगती है। पृष्ठ-भूमि कितने ही विभागों में बँटो हुई है जिनमें अन्य तीर्थंकरों, मनुष्यों और पशुओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। यह सब समुदाय एक ही ढाँचे में ढला हुआ-सा प्रतीत होता है। कुछ और भी सप्तधातुनिर्मित मूर्तियाँ इस प्रधान मूर्ति के अगल-बगल में रक्खी
हमने बिशॉप हैबर के वक्तव्य से प्रारम्भ किया था और उसी के साथ उपसंहार करेंगे। उनका कहना है कि उन्होंने जो कुछ जयपुर के महलों में देखा था वह, क्रेमलिन (Kremlin) और अलहम्ब्रा (Alhambra) दोनों से बढ़कर था; पश्चिमी मरु के किनारे पर पाबू के जैन-मन्दिर, जो उन्होंने नहीं देखे थे, सम्भवतः इन सब से बढ़कर हैं - यही मेरा भी मत है और मैं इसे दोहरा देता है कि सब मिला कर जो धन इन पर व्यय हुआ है तथा जिस कारीगरी एवं श्रम का इनमें उपयोग हुआ है उन सबको ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल आगरे का ताजमहल ही एक ऐसी इमारत है जिसको इनसे बढ़कर बताई जा सकती है। फिर, यह अपनी-अपनी रुचि का विषय है, भले ही वे पॉथिनॉन' (Parthenon) और सेण्ट पीटर्स* (St. Peter's) के समान एक दूसरे से सर्वथा भिन्न ही क्यों न हों। विशालता और सुदृढ़ता ही कोई मुख्य मापदण्ड नहीं है। इनकी विशेषता तो सुडौल आकार और निर्माण की विचित्रता एवं महर्षता में है। खम्भों वाली बहिर्गत रविशं और गुम्बजदार छतें केवल निर्माताओं की अतुल सम्पत्ति का ही सूचन नहीं करतीं वरन् कला के उच्चस्तरीय परिपाक में भी प्रेरणा प्रदान करती हैं। पवित्र कला के पारखी को यह आशङ्का करने की आवश्यकता नहीं है कि विवरण की विविधता के कारण उसकी रुचि को ठेस पहुँचेगी अथवा कारीगरी की बारीकी के कारण यहाँ के गम्भीर-गौरव में कमी आ जायगी प्रत्युत इसके विपरीत यहाँ तो ऐसे-ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि विषयानुकूल कक्ष-विभाजन से भी सामञ्जस्य में कोई अन्तर या बाधा नहीं आ पाई है । जब हम विचार करते हैं कि यह समस्त गौरव मरु के किनारे एकाकी पहाड़ की चोटी पर बिखरा पड़ा है, जहाँ अाजकल थोड़े से सीधेसादे अर्द्धसभ्य लोग निवास करते हैं, तो इस साहचर्य से हमको आश्चर्य हुए बिना
' एथेन्स का देवालय। २ रोमस्थित संसार का सब से बड़ा कैथोलिक गिर्जाघर । यह १६६७ ई० में बन कर तैयार हुना था। इसकी विशाल और ठोस गुम्बद संसार-प्रसिद्ध है।
-N. S. E.; p. 1030
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