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________________ १०६ ] पश्चिमी भारत की यात्रा मूर्तिकला की आयोजना को ध्यान से देखा है वह शैव मन्दिरों से भलीभांति परिचित हो सकता है । जैन मन्दिरों के मण्डप में सजावट की कोई चीज नहीं होती; केवल भक्त लोग पूजा के लिए तैयार होने में ही उसका उपयोग करते हैं । प्रस्तुत मण्डप पर चौबीस फोट व्यास की एक अर्द्धवृत्ताकार छतरी है जो इसके अनुरूप ऊँचाई वाले स्तम्भों पर टिकी हुई है। ये स्तम्भ चतुष्कोण आकृति में अवस्थित होने के कारण, कोने के खम्भों को छोड़कर इन पर दोनों तरफ भारी-भारी भार-पट्ट रखे हुए हैं और इस प्रकार यह गुम्बद एक अष्टकोण प्राधार पर खड़ी हुई है। परन्तु, यह सब अन्दर से ही ऐसा दिखाई पड़ता है, बाहर से तो यह एक अण्डाकार गोला मात्र प्रतीत होता है, जिसका भार किसी आड़े आधार पर टिका है न कि केन्द्र पर । खम्भों का प्रत्येक युग्म एक तोरण द्वारा सम्बद्ध है जिसकी आकृति एक विशेष प्रकार की सुन्दरता लिए हुए है और जिस पर बहुत बारीक कुराई का काम हो रहा है। पूर्व, उत्तर और दक्षिण की तरफ के बीच-बीच के खम्भे मण्डप को रविश के खम्भों से मिला देते हैं और इस तरह मिलकर वे सब उस क्षेत्र की एक बगल को पूरा कर लेते हैं । खम्भों के बीच की जगह पर छाई हुई गुम्बददार अथवा चपटी छतें, जो बड़ी छत के चारों ओर घूम गई हैं, ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रहतीं। इनकी भीतरी सतह पर रामायण-महाभारत आदि महाकाव्यों में से अनेक कथाएं उत्कोणं हो रही हैं। इस प्रकार एक विचित्र ढंग से वे अद्वैतवाद और बहुदेवतावाद के मतों का समन्वय कर देती हैं; उधर, रासमण्डल में गोपियों से घिरा हुआ कन्हैया भी फूलों, फलों व पत्तियों की कारीगरी में उभार कर बताया गया है। पशुओं के चित्रों में यद्यपि आंखों को एक प्रकार की बेचैनी सी अनुभव होती है परन्तु निर्जीव पदार्थों के चित्रण में कट्टर से कट्टर आलोचक के ध्यान में भी कोई दोष नहीं आता। प्रवाहपूर्ण रेखाओं और गौरवपूर्ण झूमते हुए फूलों के सौन्दर्य को यूरोप के किसी भी ऊंचे दर्जे के कुराईकार का काम नहीं पा सकता। एक छोटी सी सोपान-पंक्ति द्वारा मण्डप से वृषभदेव के मन्दिर में जाना होता है । इसके तीन विभाग हैं-खम्भोंवाली रविश, अन्दर का दालान और तीर्थङ्कर का निज-मन्दिर । यहाँ, पूजा के विविध उपकरणों के कारण थोड़ी देर - मिला कर इस देवता का आविष्कार किया, जो उर्वरता का अधिष्ठाता या प्रतीक माना जाता है । इसकी मूर्ति दाढ़ीदार और सिर पर टोकरा लिए हुए है। इस देवता की पूजा का केन्द्र प्रलॅक्जेंण्ड्रिया में था।-N.S.E. p. III 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003433
Book TitlePaschimi Bharat ki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJames Taud, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Puratan Granthmala
Publication Year1996
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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