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प्रकरण .. १३; खम्भात का ग्रन्थ-भण्डार; व्यापार [२६५ बड़ी मचाये, इन ग्रन्थों के अवलोकन का प्रयास किया जाये तो इस धर्म के सिद्धान्तों और उनके प्रवर्तकों के विषय में बहत-सी नई बातों का पता चल सकता है क्योंकि व्यक्तियों के जीवनवृत्तों से ही हमें इतिहास की सामग्री प्राप्त करनी चाहिए। परन्तु, यह कार्य बहुत सावधानी और धैर्यपूर्वक अनुसन्धान के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। अधिकार-प्रदर्शन से इसमें कभी काम . नहीं चल सकता। अनुसन्धान का सब से अच्छा उपाय तो यह है कि किसी ऐसे जैन साधु को 'मुंशी' बना लिया जाय जिसकी पत्रावली में हेमाचार्य अथवा अमर उसके धर्मगुरु पाए जाते हों; बस, फिर उसके माध्यम से सभी ताले खुल जावेंगे । ब्राह्मण को कभी साथ नहीं लेना चाहिए; हां, मुसलमान द्वारा सफलता की अच्छी सम्भावना हो सकती है ।
सुलेमानी पत्थर, मोचा-पत्थर, इन्द्रगोप और अन्य सभी प्रकार एवं जाति के लाल एवं गोमेदक पत्थरों को लोग राजपीपला के खण्डहरों में से लाते हैं और उनसे कई तरह के गहने, प्याले, पेटियां, मालाएं और कटार, चाकू तथा कांटों के मुठिए या मुद्राएं आदि तैयार करते हैं, जो यूरोपीय जनता में तुरन्त बिक जाते हैं क्योंकि वे ऐसी वस्तुए इङ्गलैण्ड में (अपने मित्रों आदि के पास) भेंटस्वरूप भेजते रहते हैं। यह बड़ी विचित्र बात है कि नगीने के कच्चे पत्थरों का रंग ताव देकर निखारा जाता है। गरमी पहुंचाने से दूधिया पीला हो जाता है, पीले से नारंगी रंग का, फिर भूरा तथा अन्य रंगों में बदल जाता है। मैंने भी अपने मित्रों के लिए बहुत सी चीजें खरीदीं और यदि मेरे सामने अधिक महत्वपूर्ण कार्य न होते तो अच्छी-अच्छी वस्तुओं का चयन करने हेतु कुछ और भी अधिक समय लगाता; अस्तु, हमारे घोड़ों, डेरों, सामान और साथियों को खाड़ी के उस पार सौराष्ट्र के किनारे तक पहुंचाने के लिए नावें प्राप्त करने में ही बहुत-सा समय बिताना पड़ा।
नवम्बर - खम्भात के लम्बे दलदली तट पर ज्वार-भाटा के समय, दृष्टि फैलाई जाय वहाँ तक 'लूणा पानी' ही दिखाई पड़ता है । हमारे संघ के साथी इस नमकीन पानी को 'लूणा पानी' ही कहते हैं। मेरे जैसे सदैव चिन्ताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति को बीस वर्षों की अनुपस्थिति के बाद भी समुद्र का यह गम्भीर
इस भण्डार के ग्रन्थों की एक सूची पीटसन ने तैयार करके १८२२-२३ ई० में प्रकाशित की थी। तदनन्तर ज्ञान-भण्डार के मंत्रियों की ओर से एक सूची १९४२ ई० में निकली और फिर गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज में लिस्ट का प्रथम भाग १९६१ ई. में प्रकट हुआ है । इनमें कहा गया है कि पीटर्सन की सूची के अनुसार बहुत से ग्रन्थ अब नहीं मिल रहे हैं।
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