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पश्चिमी भारत की यात्रा फाल्गुन (वसन्त) वृहस्पतिवार, तिथि १३ कृष्णपक्षे, श्री.........."रास सार्वभौम राजा अचलगढ़ की राजगद्दी पर बैठा, परमार श्री धारावर्ष' ने अचलेश्वर के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया।' कङ्कालेश्वर मन्दिर के शिलालेखों (परिशिष्ट १) से धारावर्ष का समय संवत् १२६५ अथवा १२०९ ई० विदित होता है परन्तु मुझे उस सार्वभौम शासक के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है जिसका नाम 'रास' शब्दांश से पूरा होता है । इस समय के. परमार, जिनके छोटे से राज्य में चन्द्रावती, आबू और सिरोही ये तीन प्रसिद्ध नगर थे, अणहिलवाड़ा के राजाओं के आधीन थे परन्तु उस राज्य के तत्कालीन इतिहास में भी इस 'रास' उत्तरपद से युक्त कोई नाम नहीं मिलता है । मूर्ति की बनावट से यह ध्यान में नहीं पाता कि यह लेख के समय में ही बनो होगी अथवा हम यह कल्पना कर सकते हैं कि आबू में स्वतन्त्रता का उपभोग करने वाले अन्तिम (राजा) स्वयं धारावर्ष ने ही अपने वंश के मूल पुरुष के स्मारक रूप में इस मूर्ति को स्थापित किया था। परन्तु उसके समय में कला का बहुत कुछ ह्रास हो चुका था' इसलिए यह सम्भव है कि उसने इस स्मारक का लाभ मन्दिर के जीर्णोद्धार-कार्य को चिरस्मरणीय बनाने के लिए ही उठाया हो । हिन्दू भाट [कवि] .ने, जो कभी कभी अपने प्राशय के अनुसार सहो परिणाम भी निकाल लेता है, उसके साम्राज्य-नाश के कारणों को राजनैतिक न बता कर नैतिक कारणों का ही उल्लेख किया है अर्थात् पूर्ववणित अचलेश्वर के रहस्यों को खोज निकालने का अधर्म-पूर्ण कार्य । मूर्तिकला के इस प्राचीन नमूने में और परमार
' यह नाम (धारावर्ष) सम्भवतः राजपूत कवियों (चारणों) के रूपक से लिया गया है जो
तलवार के तेज वार को 'भारा' के समान बतलाते हैं और इसकी पुनरावृत्ति को वर्षा कहा गया है-शत्रु के शिर पर (तलवार के) वारों (प्राघातों) की वर्षा हिन्दू कषियों में प्रचलित वाक्यांश है। प्रथया इस नाम में उसके मध्य-भारत की प्राचीन राजधानी धार के परमारों की शाखा से सम्बद्ध होने का सन्दर्भ हो सकता है। पाराव ने अपने लामणिक नाम को यथार्थता उस समय सिद्ध को जब भारत-विजय के समय सिरोही (तलवार ?) वास्तव में बर्बरों के शिर पर 'बरस' पड़ी थी। फरिश्ता ने प्राबू के इस राजा की शक्ति एवं शूरता का बखान दारापरेस (Daraparais) नाम से किया है जिसने हिन्दू-मुसलिम-इतिहास के सभी पाठकों को झमेले में डाल दिया है, परन्तु हम
देखते हैं कि यह नाम मूल नाम (धारावर्ष) से अधिक दूर नहीं है। २ इस कपन से एक प्रत्यक्ष विपरीतता प्रकट होती है परन्तु इसी काल के जैन मन्दिरों में,
चाहे वे कितने ही भव्य मोर विस्तृत हों, एक भी मूर्ति इसके समान स्पष्ट अवयवों वाली
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