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पश्चिमी भारत की यात्रा
से पहले कुछ जागीरें अपने वंश के लोगों और अवयस्कों को दे दी थीं, जो अब तक भी कच्छ के 'पटायत' या सामन्त हैं; जैसे, रोहा, वीजम, मावतेड़ा, नलिया, अरिसर, आदि ।
भुज के संस्थापक राव खंगार से वर्तमान अवयस्क राव तक चौदह पीढियाँ हुई हैं और उनके नाम, गद्दी पर बैठने की तिथि तथा निधन आदि सभी बातें सावधानी के साथ इतिहास में लिखी गई हैं; परन्तु इन सब बातों से पाठकों को कोई रस नहीं मिलेगा । क्रमागत नामों के साथ भेद-सूचक विशेषण लगाए गए हैं जिनसे जाड़ेचों की 'भायाद' की प्रत्येक शाखा के उद्गम का पता चल जाता है । इन जातियों के पारस्परिक, राजनीतिक और वंशानुगत सम्बन्धों एवं भेदों के विषय में पूरी जानकारी रखना जिन लोगों का कर्त्तव्य है उन लोगों के लिए ये सब बातें बहुत काम की हो सकती हैं परन्तु किसी पाश्चात्य पाठक को हमीरानी, खंगारानी, भारानी, तमाचीयानी, नौघानी, हालानी, रायधनानी, कारानी और गोरानी श्रादि की लम्बी वंशावलियों से कोई मतलब नहीं है, जिनमें एक ही नाम के राजाओं से चलने वाली शाखाओं का भेद बताने के लिए उनके विशेषणों को दो-दो तीन-तीन बार दोहराया गया है; यथा खंगार हमीरानी, खंगार तमाचीयानी, खंगार नौघानी; कहीं-कहीं तो खँगार या अन्य समान - नामधारी राजानों की शाखा का भेद बताने के लिए आधी दर्जन पैतृक नामों की भी आवृत्ति की गई है । यह सब खुजाना जाड़ेचों के भाट ने इकट्ठा कर रखा है, जो देखने में तो बेकार-सा लगता है परन्तु जब उत्तराधिकार सम्बधी विवाद खड़े होते हैं तो ये वंशावलियाँ ही निर्विवाद रूप में मान्य होती हैं ।
मूल वंशावली की सीमानों से बाहर न जाते हुए इसी विषय पर विस्तार से लिखना अपेक्षाकृत सरल काम था, परन्तु यहाँ पर मेरा मुख्य उद्देश्य वर्तमान राजवंश की यथावत् वंशावली को समझना, चालू शासन पद्धति की विशेषताओं का विवरण देना और जाड़ेचों के रहन-सहन, स्थिति एवं धर्म में आए हुए विचित्र परिवर्तनों का वर्णन करना है। इस प्रयास में आगे बढ़ने से पहले मैं इस जाति के विशिष्ट युगों का सिंहावलोकन करूंगा और इस विषय पर बहुत कुछ विचारमन्थन के उपरान्त जो दो मत कायम हुए हैं उनका भी उल्लेख करूंगा ।
भारत में यदुवंश की सर्वोच्च सत्ता ईसा से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व छिन्नभिन्न हो गई थी, तदुपरान्त उनकी विशृङ्खलता के और अधिकार के ( जो यद्यपि इतिहास विरुद्ध हैं ) प्रचुर प्रमाण हमें उनकी शुद्ध और अशुद्ध वंशावलियों, तीर्थस्थानों के माहात्म्यों, परम्पराओं और शिलालेखों आदि में प्राप्त होते हैं । इन्हीं सब स्रोतों से हमें ज्ञात होता है कि इन यादवों की एक शाखा पश्चिमी एशिया
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