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पश्चिमी भारत की यात्रा Siroboda Sooree) की प्राज्ञा से ऊजा सूर (Ooja Sroor) श्रावकगुरु और उसके पुत्र बीरपाल व हीरा लखू ने महान् तीर्थ उज्जयन्ति पर नेमेश्वर-मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया; इस कार्य के निमित्त उसने २०० मोहरें अपनी ओर से दी और २००० मोहरें ब्याज पर उधार दी।
सं. २ - राजा सम्प्रति के मन्दिर का शिलालेख संवत् १२१५२ चैत मास ८, रविवार, उज्जयन्त-गिर-तीर्थ पर यह देव चूली (मन्दिर के चारों ओर कोठरियाँ) शक्ति राजा चोमालि सिन्धेरन (Sacti Raja Comali Sindherana)' ने शाके शालिवाहन ..............." में कराई । सूर्यवंशी जसोहर और ठाकुर सोदेव (Sodeva) ने प्रवेश-द्वार का निर्माण कराया। ठाकुर भरत और अन्यों ने एक टाँका खुदवाया ।
' संवत् १३३३ वर्षे ज्येष्ठ पदि १४ भोम श्रीजिनप्रबोधसूरिसगुरूपदेशात् उच्चापुरी-वास्तव्येन घे० प्रासपालमत श्रेहरिया. लेन प्रात्मनः स्वमातृहरिलायाश्च श्रेयोऽर्थश्रीउज्जयन्तमहातीर्थे श्रीनेमिनाथदेवस्य नित्यपूजार्थ ७० २०० शतवयं प्रदत्तं । अमीषां व्याजेन पुष्पसहना २००० येन प्रतिदिनं पूजा कर्तव्या श्रीदेपकीय-प्रारामवाटिकासस्कपुष्पानि श्रीदेवकपंचकलेन श्रीदेवाय कटापनीयानि ।।
ग्रन्थकर्ता ने संभवतः ऊपर के लेख का अनुवाद किया है । इन पंक्तियों का ठीक-ठीक अर्थ यह है कि "संवत् १३३३ के वर्ष में ज्येष्ठ वदि १४ मंगलवार को श्रीजिनप्रबोधसूरि सद्गुरु के उपदेश से उच्चापुरी-निवासी सेठ प्रासपाल के पुत्र सेठ हरिपाल ने अपने और अपनी माता हरिला के पुण्यार्थ श्रीउज्जयन्त महातीर्थ में श्रीनेमिनाथदेव के नित्यपूजा-निमित्त २०० द्रम्म प्रदान किए । इन द्रम्मों के ब्याज से २००० पुष्पों से नित्य पूजा होनी चाहिए; श्रीदेवकी पारामवाटिका में से श्रीदेव के पञ्चकुल द्वारा श्री देव के निमित्त [ये पुष्प] प्राप्त किए जावें ।" परन्तु, दोनों लेखों में मास और वार का अन्तर विचारणीय है। . ११५६ ई० में कुमारपाल पश्चिमी भारत का सम्राट् था। - 3 इस विरुव से यह सिद्ध होता है कि यह राज-यात्री, जिसने इस देवचूली (धर्मशाला) का
निर्माण कराया था, सिन्ध का राजपूत राजा था। उस समय तक सोढा राजानों ने बहुत प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली थी। वे 'राणा' पदवी भी धारण करते थे।
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