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प्रकरण -७; मित्रासको भूमिगर्भ में यह इससे मिली हुई है और साथ ही उस अधिक स्पष्ट श्रेणी से भी, जिसको हमने गिरवर और चन्द्रावती के बीच में पार की थी। आगे चल कर यद्यपि इसका क्रम टूट गया है परन्तु कहीं-कहीं पर इसकी सहज सुन्दर चोटियाँ खड़ी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानों पागे फैले हुए दुर्भेद्य जंगल में से अकस्मात् निकल पड़ी हों; उधर, पूर्वीय क्षितिज में अपना सिर उठाए हुये दानवाकार अरावली इस क्रम-भंग को पन्द्रह मील चौड़ी एक सुन्दर घाटी द्वारा, जिसमें बनास का जल बहता रहता है, पूरा कर देता है। इसी बिन्दु से प्रारासण और तारिंगी के मन्दिरों का मुकुट धारण करने वाला अरावली दक्षिण की ओर चल पड़ा है और थोड़ी बहुत क्रमबद्धता एवं उठान के साथ पोलो और ईडर को घेरता हुआ नरबदा [नर्मदा] तक चला गया है, जो इसे राम-सेतु पर समाप्त होने वाले भारतीय एपिनाइन, कोंकण श्रेणी से पृथक् करती है। मैं यह कहना भूल गया था कि यह क्रमहीन श्रेणी बाई भोर बीस मील की दूरी पर दाँतल में जाकर समाप्त हो जाती है जो राणा पदवीधारी बरड़ (Burrur ) नामक राजपूत जाति के सरदार का निवासस्थान है। कहते हैं कि मूल में यह जाति सिन्ध की घाटी से आई थी। पाख्यानों में कहा गया है कि स्वयं भवानी इन लोगों को वहाँ से लाई है और इसी कारण से इन्होंने माता के मन्दिरों में से सोने-चांदी के चढ़ावे का प्राधा बाँटा लेने का अधिकार प्राप्त किया है। इसी सरदार ने अर्बुदा देवी के मन्दिर से सोने का प्याला हथिया लिया था और साथ ही उस पर दूसरा अभियोग यह भी था कि उसने दारू (Daroo) सरदार द्वारा चढ़ाए हुए आरासण की देवी के पात्र पर अपना अपवित्र हाथ डाला था। यदि इस सरदार का निकास सिन्ध से ही है तो इसके पूर्वज कितनी ही शताब्दियों पहले उठकर यहाँ आ गए होंगे, यद्यपि इस भयाविनी भवानी का एक मन्दिर और उसके उपासक सिन्धु के पश्चिम में मकरान के किनारे अब भी मौजूद हैं।
गिरवर और सरोत्रा के बीच में कुरैतर (Kuraitur) ग्राम में हमने बनास को पार किया, जो थोड़ी देर के लिए जंगल के प्रच्छन्न भागों से प्रकट होकर सरोत्रा को चली जाती है; वहाँ उसी के किनारे पर हमने अपना डेरा लगाया। वन में चारों ओर जंगली मुर्गों का शब्द सुनाई दे रहा था और कोयल तो सुदूर दक्षिण में चित्रासणी (Cheerasani) तक हमारे साथ रहो; कोली लोग
, सरोत्रा पालनपूर राज्य की उत्तर-पूर्वीय सीमा पर बनास नदी के किनारे पर एक छोटा
सा भीलों का गांव है।
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