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पश्चिमी भारत की यात्रा
दिन श्रा जाने से कोई सन्तोष न हुआ । हम लोगों में ऐसे भी मनुष्य थे जिनके लिए यह शान्ति 'नरक' थी । ऐसे लोगों में भदेसर ( Badeswer) का सरदार हमीर और 'पहाड़ी शेर' (बहार सिंह) थे जिनके बहुत से साथियों सहित असन्तुष्ट होने का कारण स्पष्ट था, क्योंकि उनकी वंशपरम्परागत भूमि का बहुत सा भाग उस समय मरहठों ने दबा रक्खा था और उसे पुनः प्राप्त किए बिना चैन से न बैठना उनका धर्म था ।
जहाँ ऐसे निजी सम्बन्ध बन जाएँ वहाँ वियोग की घड़ियों में दोनों पक्षों को दुःख का अनुभव होना स्वाभाविक है । यह हमारी प्रकृति पर एक प्रकार का लाञ्छन है. जैसा कि प्रायः ढिढोरा पीट कर कहा जाता है, कि हम लोग घमण्ड में भरकर यह मान बैठे हैं कि हम से कुछ पक्के वर्ण वाले लोगों में सद्गुणों का निवास ही नहीं होता । इस अवसर पर सहज हास्यप्रियता और अर्थपूर्ण वाचालता के धनी राणाजी भी विचारमग्न हुए चुपचाप बैठे थे 1 वे बार-बार केवल इसी वाक्य को दोहराते रहे " देखना, मैं आपको तीन वर्ष की छुट्टी देता हूँ; रामदोहाई, ज्यादा ठहरे तो ढूंढ़ कर पकड़ लाऊँगा ।" परन्तु उस समय एकत्र हुए सरदारों से जो ज़ोरदार बात उन्होंने कही वह मुझे सब से अच्छी लगी, " इन्होंने पाँच वर्ष मेरे यहाँ काम किया, देश ( रियासत) को बरबादी की हालत से ऊँचा उठाया, परन्तु एक चुटकी भी मेवाड़ की मिट्टी संग नहीं ले जाते ।" उनका कथन सत्य था ; मरहठा कार्यकर्त्ताओं के उदाहरण सामने होते हुए यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी कि किसी विदेशी के लिए राजस्व और वित्तमन्त्री का उत्तरदायित्त्वपूर्ण कार्य निष्पक्ष रहकर पूरा करना भी सम्भव हो सकता था । और इसी में यूरोपीय ( चरित्र की ) श्रेष्ठता का महान् रहस्य विद्यमान है जो उनके स्वभाव और सहृदयता के साथ मिलकर किसी भी देशीय और विशेषतः राजपूत दरबार में अप्रतिहत प्रभाव और आदर प्राप्त किए बिना नहीं रहता । नैतिकता के मूलभूत सौन्दर्य के प्रति कोई भी मानव राजपूत से बढ़कर सजग नहीं है; और कदाचित् वह स्वभाववश अपने आप इसका पालन नहीं कर पाता है तो कोई भी अनुभवी सूत्र उसको मार्गदर्शन कराता रहता है |
दो घण्टे बैठने के बाद छुट्टी लेना आवश्यक हुआ और विदाई की भेंटें प्रस्तुत हुईं। अन्त में, जैसे-तैसे, मुझे स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कहते हुए राणाजी ने विदा लेने का प्रयत्न किया और उनका घोड़ा द्वार पर आ लगा । मैंने भी अपने भतीजे कप्तान वाघ पर मेरी तरह कृपा बनाए रहने के लिए निवेदन किया और जल्दी-जल्दी, भरे हुए दिल से, हमने आपस में अभिवादन किया । कुछ सरदार लोग अन्तिम शब्द कहने के लिए रुक गए। इनमें प्रमुख
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